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जैन दर्शन और संस्कृति बंगाल
. राजनीतिक दृष्टि से प्राचीन काल में बंगाल का भाग्य मगध के साथ जुड़ा हुआ था। नंदों और मौर्यों ने गंगा की उस निचली घाटी पर अपना अधिकार बनाए रखा। कुषाणों के समय में बंगाल उनके शासन से बाहर रहा, परन्तु गुप्तों ने उस पर अपना अधिकार फिर स्थापित किया। गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् बंगाल में छोटे -छोटे अनेक राज्य उठ खड़े हुए।
भगवान् महावीर वज्रभूमि (बीरभोम) में गए थे। उस समय वह अनार्य-प्रदेश कहलाता था। उससे पूर्व बंगाल में भगवान् पार्श्व का ही धर्म प्रचलित था।
भगवान् महावीर के सातवें पट्टधर श्रनकवली श्री भद्रबाहु पौण्ड्रवर्धन (उत्तरी बंगाल) के प्रमुख नगर कोट्टपुर के सोमशर्मा पुरोहित के पुत्र थे।
उनके शिष्य स्थविर गोदास से गोदास-गण का प्रवर्तन हुआ। उसकी चार शाखाएं थीं-तामलित्तिया, कोडिवरिसिया, पुण्डबद्धणिया (पोंडवद्धणिया), दासीखब्बडिया।
तामलित्तियों का सम्बन्ध बंगाल की मुख्य राजधानी ताम्रलिप्ती से है। कोडिवरिसिया का सम्बन्ध राढ की राजधानी कोटि-वर्ष से है। पोंडबद्धणिया का सम्बन्ध पौंड्र–उत्तरी बंगाल से है। दासीखब्बडिया का सम्बन्ध खरवट से है। इन चारों बंगाली शाखाओं से बंगाल में जैन-धर्म के सार्वजनिक प्रसार की सम्यक् जानकारी मिलती है। उड़ीसा . ई. पूर्व दूसरी शताब्दी में उड़ीसा में जैन-धर्म बहुत प्रभावशाली था। सम्राट खारवेल का उदयगिरि पर्वत पर हाथीगुंफा का शिलालेख इसका स्वयंभू प्रमाण है। लेख का प्रारम्भ–'नमो अरहंताणं, नमो सव-सिधान'—इस वाक्य से होता है। उत्तर-प्रदेश
भगवान् पार्श्व वाराणसी के थे। काशी और कौशल-ये दोनों राज्य उनके धर्मोपदेश से बहुत प्रभावित थे। वाराणसी का अलक्ष्य राजा भी भगवान् महावीर के पास प्रवजित हुआ था। उत्तराध्ययन में प्रवजित होने वाले राजाओं की सूची में काशीराज के प्रवजित होने का भी उल्लेख है।
उत्तर भारत में भी जैन धर्म का प्रभुत्व बना रहा। कभी वह कम हो जाता और कभी बढ़ जाता। कुषाण सम्राटों के शासनकाल (ई. ७५-२५०) तक,