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जैन धर्म का प्रसार
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मंदिर के मुख एवं छत पर उत्कीर्ण है। इसकी तिथि ई. पू. १५२ मानी जाती है । इस शिलालेख का प्रारम्भ अर्हतों और सिद्धों की वंदना से होता है ।
उसमें यह भी लिखा गया कि ई.पू. १५३ में कुमारी पर्वत पर उन्होंने जैन मुनियों और श्रावकों का महा सम्मेलन किया और उसमें द्वादशांगी श्रुत के उद्धार के लिए प्रयत्न किया । खारवेल के पश्चात् भी उड़ीसा में लगभग सात शताब्दियों तक जैन धर्म का प्रभुत्व रहा ।
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इस प्रकार एक सहस्राब्दी तक उत्तर एवं दक्षिण भारत के विभिन्न स्थानों पर जैन मतावलम्बी राजे, मंत्री, कोटपाल, कोषाध्यक्ष आदि थे । गुजरात, सौराष्ट्र आदि प्रदेशों में उसके पश्चात् भी जैन धर्म का प्रभुत्व बना रहा।
जैन-धर्म भारत के विविध अञ्चलों में
बिहार
भगवान् महावीर के समय में उनका धर्म प्रजा के अतिरिक्त अनेक राजाओं द्वारा स्वीकृत था । वज्जियों के शक्तिशाली गणतन्त्र के प्रमुख राजा चेटक भगवान् महावीर के श्रावक थे । वे पहले से ही जैन थे । वे भगवान् पार्श्व की परम्परा को मान्य करते थे । वज्जी गणतन्त्र की राजधानी 'वैशाली' थी. 1... वहाँ जैन-धर्म बहुत प्रभावशाली था ।
मगध में भी जैन-धर्म प्रभावशाली था। मगध सम्राट श्रेणिक की रानी चेल्लणा चेटक की पुत्री थी । यह श्रेणिक को निग्रंथ धर्म का अनुयायी बनाने का सतत प्रयत्न करती थीं और अन्त में उसका प्रयत्न सफल हो गया । श्रेणिक का पुत्र कूणिक भी जैन था। जैन आगमों में महावीर और कूणिक के अनेक प्रसंग हैं ।
मगध-शासक शिशुनाग वंश के बाद नंद वंश का राज्य वर्तमान बम्बई के सुदूर दक्षिण गोदावरी तक फैला हुआ था । उस समय मगध और कलिंग में जैन-धर्म का प्रभुत्व था ही, परन्तु अन्यान्य प्रदेशों में भी उसका प्रभुत्व बढ़ रहा
था ।
नंद-वंश की समाप्ति हुई और मगध की साम्राज्यश्री मौर्य वंश के हाथ में आई । उसका पहला सम्राट् चन्द्रगुप्त था । उसने उत्तर भारत में जैन-धर्म का बहुत विस्तार किया । पूर्व और पश्चिम भी उससे काफी प्रभावित हुए । सम्राट् चन्द्रगुप्त अपने अन्तिम जीवन में मुनि बने और श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ दक्षिण में गए थे। चन्द्रगुप्त के पुत्र बिंदुसार और उनके पुत्र अशोकश्री ( सम्राट अशोक) हुए । अशोक के उत्तराधिकारी उनके पौत्र सम्प्रति 1