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जैन संस्कृति : मूल आधार
२२७ पर्युषण पर्व आराधना का पर्व है। भाद्र बदी १२ या १३ से भाद्र सुदी ४ या ५ तक यह पर्व मनाया जाता है। इसमें तपस्या, स्वाध्याय, ध्यान आदि आत्मशोधक प्रवृत्तियों की आराधना की जाती है। इसका अन्तिम दिन सम्वत्सरी कहलाता है। वर्षभर की भूलों के लिए क्षमा लेना और क्षमा देना इसकी विशेषता है। यह पर्व मैत्री और उज्ज्वलता का संदेशवाहक है।
दिगम्बर-परम्परा में भाद्र शुक्ला पंचमी से चतुर्दशी तक दसलक्षण पर्व मनाया जाता है। इसमें प्रतिदिन क्षमा आदि दस धर्मों में से एक-एक धर्म की आराधना की जाती है, इसे दस लक्षण पर्व कहा जाता है। दशलक्षण पर्व का समापन चतुर्दशी के दिन होता है जिसे “अनन्त चतुर्दशी” कहा जाता है।
महावीर जयन्ती चैत्र शुक्ला १३ को भगवान् महावीर के जन्म दिवस के उपलक्ष में मनाई जाती है।
दीपावली का सम्बन्ध भगवान् महावीर के निर्वाण से है। प्राचीनतम जैन ग्रंथों से यह बात स्पष्ट शब्दों में कही गई है कि कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि तथा अमावस्या के प्रभात के बीच सन्धि-वेला में भगवान् महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया था तथा इस अवसर पर देवों तथा इन्द्रों ने दीपमालिका सजाई थी।
__ आचार्य जिनसेन ने हरिवंशपुराण में स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि दीपावली का महोत्सव भगवान महावीर के निर्वाण की स्मृति में मनाया जाता है। दीपावली की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यही प्राचीनतम प्रमाण है।
अभ्यास १. जैन संस्कृति के मूल आधार को स्पष्ट करें। २. जैन कलाओं पर विस्तार से प्रकाश डालें।
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