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जैन धर्म का प्रसार
जैन धर्म का प्रभुत्व
__ भगवान् महावीर की जन्मभूमि, तपोभूमि और विहारभूमि बिहार था। इसलिए महावीर-कालीन जैन-धर्म पहले बिहार में पल्लवित हुआ। कालक्रम में वह बंगाल, उड़ीसा, उत्तर भारत, दक्षिण भारत, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रांत और राजपूताना में फैला। विक्रम की सहस्राब्दी के पश्चात् शैव, लिंगायत, वैष्णव आदि वैदिक सम्प्रदायों के प्रबल विरोध के कारण जैनधर्म का प्रभाव सीमित हो गया। अनुयायियों की अल्प संख्या होने पर भी जैन-धर्म का सैद्धांतिक प्रभाव भारतीय चेतना पर व्याप्त रहा। बीच-बीच में प्रभावशाली जैनाचार्य उसे उबुद्ध करते रहे। विक्रम की बारहवीं शताब्दी में गुजरात का वातावरण जैन-धर्म से प्रभावित था।
गुर्जर-नरेश जयसिंह और कुमारपाल ने जैन-धर्म को बहुत ही प्रश्रय दिया और कुमारपाल का जीवन जैन-आचार का प्रतीक बन गया था। सम्राट अकबर भी हीरविजयसूरि से प्रभावित थे। अमेरिकी दार्शनिक विल ड्यूरेन्ट ने लिखा है—“अकबर ने जैनों के कहने पर शिकार छोड़ दिया था और कुछ, नियत तिथियों पर पशु-हत्याएं रोक दी थीं। जैन-धर्म के प्रभाव से ही अकबर ने अपने द्वारा प्रचारित दीन-ए-इलाही नामक सम्प्रदाय में माँस-भक्षण के निषेध का नियम रखा था।"
जैन मंत्री, दण्डनायक और अधिकारियों के जीवन-वृत्त बहुत ही विश्रुत हैं। वे विधी राजाओं के लिए भी विश्वासपात्र रहे हैं। उनकी प्रामाणिकता और कर्तव्यनिष्ठा की व्यापक प्रतिष्ठा थी। जैनत्व का अंकन पदार्थों से नहीं, किन्तु चारित्रिक मूल्यों से ही हो सकता है।
. भगवान् महावीर के युग में जैन धर्म भारत के विभिन्न भागों में फैला। सम्राट अशोक के पौत्र संप्रति ने जैन-धर्म का संदेश भारत से बाहर भी पहुँचाया। उस समय जैन-मुनियों का बिहार-क्षेत्र भी विस्तृत हुआ। श्री विश्वम्भरनाथ पांडे ने अहिंसक परम्परा की चर्चा करते हुए लिखा है-“ईसवी