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जैन दर्शन और संस्कृति
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आदि के म्यूजियमों में भी अनेक जैन-मूर्तियाँ मौजूद हैं। इनमें से कुछ गुप्त - कालीन हैं । मथुरा में चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान महावीर की एक मूर्ति मिली है जो कुमारगुप्त के समय में तैयार की गई थी । वास्तव में मथुरा में जैन - मूर्तिकला की दृष्टि से भी बहुत काम हुआ है।
खण्डगिरी और उदयगिरी में ई.पू. १८८-३० तक की शुंगकालीन मूर्ति - शिल्प के अद्भुत चातुर्य के दर्शन होते हैं । वहाँ की इस काल की कटी हुई सौ के लगभग जैन गुफाएं हैं, जिनमें मूर्ति - शिल्प भी है। दक्षिण भारत के अलगामले नामक स्थान में खुदाई में जैन- मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं, उनका समय ई.पू. ३००-२०० के लगभग बताया जाता है। उन मूर्तियों की सौम्याकृति द्राविड़कला में अनुपम मानी जाती है। श्रवण बेलगोला की प्रसिद्ध जैन-मूर्ति तो संसार की अद्भुत वस्तुओं में से है । यह गोमटेश्वर बाहुबली की सत्तावन फुट ऊंची मूर्ति एक ही पत्थर में उत्कीर्ण है । इसकी स्थापना राजमल्ल नरेश के प्रधानमन्त्री तथा सेनापति चामुण्डराय ने ई. सन् ९८३ में की थी । यह अपने अनुपम सौन्दर्य और अद्भुत कान्ति से प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। यह वि॑श्व को जैन - मूर्तिकला की अनुपम देन है ।
मध्य भारत (वडवानी) में भगवान् ऋषभदेव की ८४ फुट ऊंची मूर्ति एशिया की सबसे बड़ी मूर्ति मानी जाती है ।
जैन मूर्तिकला का विकास मथुरा - काल से हुआ ।
जैन स्थापत्य कला के सर्वाधिक प्राचीन अवशेष उदयगिरि, खण्डगिरि एवं जूनागढ़ की गुफाओं में मिलते हैं ।
उत्तरवर्ती स्थापत्य की दृष्टि से चित्तौड़ का 'कीर्ति स्तम्भ', आबू के मन्दिर एवं रणकपुर के जैन मन्दिरों के स्तम्भ भारतीय शैली के रक्षक रहे हैं । "
पर्व और त्यौहार
जैनों के मुख्य पर्व चार हैं१. अक्षय तृतीय ३. महावीर जयन्ती
२. पर्युषण और दस लक्षण ४. दीपावली
अक्षय तृतीया पर्व का सम्बन्ध आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभनाथ से है । उन्होंने वैशाख सुदी तृतीया के दिन बारह महीनों की तपस्या का इक्षु-रस से पारणा किया । इसलिए वह इक्षु तृतीया या अक्षय तृतीया कहलाती है ।
१.
आबू आदि के विषय में विस्तृत चर्चा "जैनों के कुछ विशिष्ट स्थल" के अन्तर्गत आगे की गई है।