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________________ जैन संस्कृति : मूल आधार २२५ __योगी मारा गिरिगुहा (रामगढ़ की पहाड़ी, सरगूजा) और सितन्न-वासल (पदुकोटै राज्य). के भित्ति-चित्र अत्यन्त प्राचीन और सुन्दर हैं। चित्रकला की विशेष जानकारी के लिए 'जैन चित्र कल्पद्रुम' देखना चाहिए। लिपि-कला अक्षर-विन्यास भी एक सुकुमार कला है। जैन साधुओं ने इसे बहुत ही विकसित किया। वे सौन्दर्य और सुन्दरता-दोनों दृष्टियों से इसे उन्नति के शिखर तक ले गए। पन्द्रह सौ वर्ष पहले लिखने का कार्य प्रारम्भ हुआ और वह अब तक विकास पाता रहा है। लेखन-कला में यतियों का कौशल विशेष रूप से प्रस्फुटित हुआ है। तेरापंथ के साधुओं ने भी इस कला में चमत्कार प्रदर्शित किया है। सूक्ष्म लिपि में यह अग्रणी है। कई मुनियों ने ग्यारह इंच लम्बे और पाँच इंच चौड़े पन्ने में लगभग अस्सी हजार अक्षर लिखे हैं। ऐसे पत्र आज तक अपूर्व माने जाते रहे हैं। जैन स्तूप ___ भारतीय स्थापत्य-भवन निर्माण एवं मूर्ति कला क्षेत्र में जैन परम्पराएं अति प्राचीन हैं। मथुरा के पास स्थित कंकाली टीले का उत्खनन करके पुराविदों ने एक अति प्राचीन स्तूप के भग्नावशेष निकाले हैं, जो डॉ. फूहरर् के शब्दों में भारत में बनी प्राचीनतम इमारत है। गोलाकार तल के गोल चबूतरे पर जैन पद्धति से ढोलनुमा इमारत बनी है, जिसमें अर्द्धगोलाकार प्रदक्षिणा-पथ, आड़ी पटरियाँ और चारों दिशाओं में . तोरणद्वार बने हैं। वहीं मिले एक पेनल पर स्तूप की आकृति बनी है और पेनल पर कोट्टियाण, थानिय कुल और वैर शाखा के उल्लेख के साथ संवत् ९५ का लेख लिखा है। स्तूप की खुदाई से सैंकड़ों मूर्ति, शिलालेख और कलात्मक उपकरण मिले हैं। मूर्तिकला और स्थापत्य-कला सबसे प्राचीन जैन-मूर्ति पटना के लोहनीपुर स्थान से प्राप्त हुई है। यह मूर्ति मौर्यकाल की मानी जाती है और पटना म्यूजिमय में रखी हुई है। इसकी चमकदार पॉलिश अभी तक भी ज्यों की त्यों बनी है। मथुरा, लखनऊ, प्रयाग
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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