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जैन दर्शन और संस्कृति ४. क्षमा या सहिष्णुता, जिससे धैर्य बढ़े। ५. शौच या पवित्रता, जिससे एकता बढ़े। ६. सत्य या प्रामाणिकता, जिससे निर्भयता बढ़े। ७. माध्यस्थ्य या आग्रहहीनता, जिससे सत्य-स्वीकार की शक्ति बढ़े।
किन्तु इन सबको संयम की अपेक्षा है। ‘एक ही साधै सब सधै'–संयम की साधना हो, तो सब सध जाते हैं, नहीं तो नहीं। जैन विचारधारा इस तथ्य को पूर्णता का मध्य-बिन्दु मानकर चलती है। अहिंसा इसी की उपज है, जो 'जैन विचरणा' की सर्वोपरि देन मानी जाती है।
अहिंसा. और मुक्ति-श्रमण-संस्कृति की ये दो ऐसी आलोक रेखाएं हैं, जिनसे जीवन के वास्तविक मूल्यों को देखने का अवसर मिलता है।
जब जीवन का धर्म अहिंसा या कष्ट-सहिष्णुता और साध्य-मुक्ति या स्वातंत्र्य बन जाता है, तब व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उन्नति रोके नहीं रुकती।
अहिंसा का विकास संयम के आधार पर हुआ है। अत: अहिंसा का उपदेश करुणा की भावना से उत्पन्न न होकर संसार से पवित्र रहने की भावना पर आधृत है। कार्य के आचरण से नहीं, अधिकतर पूर्ण बनने के आचरण से संबंधित है। ....
___ यह सच है कि अहिंसा के उपदेश में सभी जीवों के समान स्वभाव को मान लिया गया है परन्तु इसका आविर्भाव करुणा से नहीं हुआ है। भारतीय संन्यास में अकर्म का साधारण सिद्धान्त ही इसका कारण है।
सामान्य धारणा यह है कि जैन-संस्कृति निराशावाद या पलायनवाद की प्रतीक है। किन्तु यह चिन्तन पूर्ण नहीं है। जैन-संस्कृति का मूल तत्त्ववाद है। कल्पनावाद में कोरी आशा होती है। तत्त्ववाद में आशा और निराशा का यथार्थ अंकन होता है। '. परिग्रह के लिए सामाजिक प्राणी कामनाएं करते हैं। जैन उपासकों का कामना-सूत्र है
१. कब मैं अल्प-मूल्य एवं बहु-मूल्य परिग्रह का प्रत्याख्यान करूंगा। २. कब मैं मुण्ड हो, गृहस्थपन छोड़, साधुव्रत स्वीकार करूंगा।
३. कब मैं अपश्चिम-मारणान्तिकसंलेखना यानी अन्तिम अनशन में शरीर को झोंसकर—जुटाकर और भूमि पर गिरी हुई वृक्ष की डाली की तरह अडोल रखकर मृत्यु की अभिलाषा न करता हुआ विचरूंगा।
जैनाचार्य धार्मिक विचार में बहुत ही उदार रहे हैं। उन्होंने अपने अनुयायियों को केवल धार्मिक नेतृत्व दिया। उन्हें परिवर्तनशील सामाजिक