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जैन संस्कृति : मूल आधार
त्याग और तप
जैन संस्कृति व्रात्यों की संस्कृति है । व्रात्य शब्द का मूल व्रत है । उसका अर्थ है—संयम और संवर । वह आत्मा के सान्निध्य और बाह्य जगत् के प्रति अनासक्ति का सूचक है । व्रत का उपजीवी तत्त्व तप है । उसके उद्भव का मूल जीवन का समर्पण है ।
जैन परम्परा तप को अहिंसा, समन्वय, मैत्रीं और क्षमा के रूप में मान्य करती है । भगवान् महावीर ने अज्ञानपूर्ण तप का उतना ही विरोध किया है, जितना कि ज्ञानपूर्ण तप का समर्थन । अहिंसा के पालन में बाधा न आए, उतना तप सब साधकों के लिए आवश्यक है। विशेष तप उन्हीं के लिए है— जिनमें आत्मबल या दैहिक विराग तीव्रतम हो । निर्गन्थ शब्द अपरिग्रह और जैन शब्द कषाय-विजय का प्रतीक है। इस प्रकार जैन-संस्कृति आध्यात्मिकता, त्याग, सहिष्णुता, अहिंसा, समन्वय, मैत्री, क्षमा, अपरिग्रह और आत्म-विजय की धाराओं का प्रतिनिधित्व करती हुई विभिन्न युगों में विभिन्न नामों द्वारा अभिव्यक्त हुई है ।
एक शब्द में जैन-संस्कृति त्याग - मूलक है । जैन - विचारधारा की बहुमूल्य देन संयम है।
दुःख-सुख को ही जीवन का ह्रास और विकास मत समझो । संयम जीवन का विकास है और असंयम ह्रास । असंयमी थोड़ों को व्यावहारिक लाभ पहुँचा सकता है, किन्तु वह छलना, क्रूरता और शोषण को नहीं त्याग सकता ।
संयमी थोड़ों का व्यावहारिक हित न साध सके, फिर भी वह सबके प्रति निश्छल, दयालु और शोषण मुक्त रहता है। मनुष्य जीवन उच्च संस्कारी बने, इसके लिए उच्च वृत्तियाँ चाहिए; जैसे—
१. आर्जव या ऋजुभाव, जिससे विश्वास बढ़े ।
: २. मार्दव या दयालुता, जिससे मैत्री बढ़े । ३. लाघव या नम्रता, जिससे सहृदयता बढ़े ।