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जैन, संस्कृति : मूल आधार
.. २२३ व्यवस्था में कभी नहीं बांधा। समाज-व्यवस्था को समाजशास्त्रियों के लिए सुरक्षित छोड़ दिया। धार्मिक विचारों के एकत्व की दृष्टि से जैन-समाज है, किन्तु सामाजिक बंधनों की दृष्टि से जैन-समाज का कोई अस्तित्व नहीं है।
जैन-संस्कृति का रूप सदा व्यापक रहा है। उसका द्वार सबके लिए खुला रहा है। उस व्यापक दृष्टिकोण का मूल असांप्रदायिकता और जातीयता का अभाव है। व्यवहार-दृष्टिकोण में जैनों के सम्प्रदाय हैं पर उन्होंने धर्म को सम्प्रदाय के साथ नहीं बांधा। वे जैन-सम्प्रदायों को नहीं, जैनत्व को महत्त्व देते हैं। जैनत्व का अर्थ है-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र की आरधाना ।
__कभी-कभी एक विचार प्रस्पुटित होता है-जैन-धर्म के अहिंसा सिद्धांत ने भारत को कायर बना दिया, पर यह सत्य से बहुत दूर है। अहिंसक कभी-कायर नहीं होता। यह कायरता और उसके परिणामस्वरूप परतन्त्रता हिंसा के उत्कर्ष से, आपसी वैमनस्य से आयी और तब आयी, जब जैन-धर्म के प्रभाव से भारतीय मानस दूर हो रहा था।
भगवान् महावीर ने समाज के जो नैतिक मूल्य स्थिर किए, उनमें दो बातें सामाजिक राजनैतिक दृष्टि से भी अधिक महत्त्वपूर्ण थीं- ..
१. अनाक्रमण-संकल्पी हिंसा का त्याग । २. इच्छा परिमाण-परिग्रह का सीमाकरण।
यह लोकतंत्र या समाजवाद का प्रधान सूत्र है। वाराणसी · संस्कृत विश्वविद्यालय के उपकुलपति श्री आदित्यनाथ झा ने इस तथ्य को इन शब्दों में अभिव्यक्त किया है—“भारतीय जीवन में प्रज्ञा और चारित्र का समन्वय जैन और बौद्धों की विशेप देन है। जैन-दर्शन के अनुसार सत्य-मार्ग परम्परा का अन्धानुकरण नहीं है, प्रत्युत तर्क और उपपत्तियों से सम्मत तथा बौद्धिक रूप से संतुलित दृष्टिकोण ही सत्य-मार्ग है। इस दृष्टिकोण की प्राप्ति तब संभव है, जब मिथ्या विश्वास पूर्णत: दूर हो जाए। इस बौद्धिक आधार-शिला पर ही अहिसा. सत्य. अस्ते य. ब्रह्मचर्य. अपरिग्रह के बल से सम्यक् चारित्र को प्रतिष्ठित किया जा सकता है।
____ "जैन-धर्म का आचारशास्त्र भी जनतंत्रवादी भावनाओं से अनुप्राणित है। जन्मत: सभी व्यक्ति समान हैं और प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और रुचि के. अनुसार गृहस्थ या मुनि हो सकता है।"
“अपरिग्रह संबंधी जैन धारणा भी विशेषत: उल्लेखनीय है। आज इस बात पर अधिकाधिक बल देने की आवश्यकता है, जैसा कि प्राचीन काल के जैन विचारकों ने किया था। 'परिमित परिग्रह'-उनका आदर्श वाक्य था। जैन ।