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अंग
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जैन दर्शन और संस्कृति वाड्मय का भाग्य लम्बे समय तक कण्ठस्थ-परम्परा में ही सुरक्षित रहा है। जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं के शिष्य उत्तराधिकार के रूप में अपने-अपने आचार्यों द्वारा ज्ञान का अक्षय-कोष पाते थे। आगम के भेद-प्रभेद
आगम-पुरुष की कल्पना हुई, तब अंग-प्रविष्ट को उसके अंग-स्थानीय और बारह सूत्रों को उपांग-स्थानीय माना गया। पुरुष के जैसे दो पैर, दो जंघाएं, दो उरु, दो गात्रार्थ, दो बाहु, ग्रीवा और सिर—ये बारह अंग होते हैं, वैसे ही श्रुतपुरुष के आचार आदि बारह अंग होते हैं। इसलिए ये अंग-प्रविष्ट कहलाते हैं। कान, नाक आंख, जंघा, हाथ और पैर-ये उपांग हैं। श्रुतपुरुष के भी औपपातिक आदि बारह उपांग हैं। . बारह अंगों और उनके उपांगों की व्यवस्था इस प्रकार है
उपांग आचार
औपपातिक सूत्रकृत्
राजप्रश्नीय स्थान -
जीवाभिगम समवाय
प्रज्ञापना भगवती
सूर्यप्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्मकथा
अम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति उपासकदशा
चन्द्रप्रज्ञप्ति अन्तकृद्दशा
कल्पिका अनुत्तरोपपातिकदशा
काल्पावतंसिका प्रश्नव्याकरण
पुष्पिका विपाक
पुष्पचूलिका दृष्टिवाद
वृष्णिदशा दर्शवैकालिक और उत्तराध्ययन-ये दो मूल सूत्र माने जाते हैं। नन्दी और अनुयोगद्वार—ये दो चूलिका - सूत्र हैं। व्यवहार, बृहत्कल्प, निशीथ और दशाश्रुतस्कन्ध—ये चार छेद सूत्र हैं।
इस प्रकार अंग-बाह्य-श्रुत की समय-समय पर विभिन्न रूपों में योजना, हुई है।
आगमों का वर्तमान संस्करण देवर्द्धिगणी का है। अंगों के कर्ता गणधर हैं। अंग-बाह्य-श्रुत के कर्ता स्थविर हैं। उन सबका संकलन और संपादन करने