________________
जैन साहित्य : संक्षिप्त परिचय
२११ कृषि—ये तीन प्रकार के व्यापार चलाए। इनमें आये हुए लेख-कला और मषि शब्द लिखने की परम्परा को कर्म-युग के आरम्भ तक ले जाते हैं। नन्दी-सूत्र में तीन प्रकार का अक्षर-श्रुत बतलाया गया है। इसमें पहला संज्ञाक्षर है। इसका अर्थ होता है—अक्षर की आकृति—लिपि।
प्रागैतिहासिक काल में लिखने की सामग्री कैसी थी, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। राजप्रश्नीयसूत्र में पुस्तक रत्न का वर्णन करते हुए कम्बिका (ruler), मोंरा, गांठ, लिप्यासन (मषिपात्र), छंदन (ढक्कन), सांकली, मषि और लेखनी-लेख-सामग्री के इन उपकरणों की चर्चा की गई है। प्राज्ञापना में 'पोत्थारा' शब्द आता है जिसका अर्थ होता है-लिपिकार—पुस्तक विज्ञान-आर्य । इसे शिल्पार्य में गिना गया है। इसी सूत्र में बताया गया है कि अर्ध-मागधी भाषा और ब्राह्मी लिपि का प्रयोग करने वाले भाषार्य होते हैं। भगवती सूत्र के
आरम्भ में ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया गया है, उसकी पृष्ठभूमि में भी लिखने का इतिहास है। भाव-लिपि के पूर्व वैसे ही द्रव्य-लिपि रहती है, जैसे भाव-श्रुत के पूर्व द्रव्य-श्रुत होता है। द्रव्य-श्रुत श्रूयमाण शब्द और पठ्यमान शब्द-दोनों प्रकार का होता है। इससे सिद्ध है कि द्रव्य-लिपि द्रव्य-श्रुत से अतिरिक्त नहीं, उसी का एक अंश है। पाँच प्रकार की पुस्तकें बतलाई गई हैं—१. गण्डी, २. कच्छवी, ३. मुष्टि, ४. संपुट फलक, ५. सृपाटिका। हरिभद्रसूरि ने भी दशवैकालिक टीका में प्राचीन आचार्यों की मान्यता का उल्लेख करते हुए इन्हीं पुस्तकों का उल्लेख किया है। निशीथचूर्णि में भी इनका उल्लेख है। अनुयोगद्वार का पोत्थकम्म (पुस्तक कर्म) शब्द भी लिपि की प्राचीनता का एक प्रबल प्रमाण है। टीकाकार ने पुस्तक का अर्थ ताड़-पत्र अथवा संपुटक-पत्र-संचय
और कर्म का अर्थ उसमें वर्तिका आदि से लिखना किया है। इसी सूत्र में आए हुए पोत्थकार (पुस्तककार) शब्द का अर्थ टीकाकार ने ‘पुस्तक के द्वारा जीविका चलाने वाला' किया है। जीवाभिगम के पोत्थार (पुस्तककार) शब्द का यही अर्थ होता है। भगवान् महावीर की पाठशाला में पढ़ने-लिखने की धटना भी तात्कालिक लेखन-प्रथा का एक प्रमाण है। वीर-निर्वाण की दूसरी शताब्दी में आक्रान्ता सम्राट सिकन्दर के सेनापति निआस ने लिखा है—“भारतवासी लोग कागज बनाते थे।” ईस्वी के दूसरे शतक में ताड़-पत्र और चौथे में भोज-पत्र लिखने के व्यवहार में लाए जाते थे। वर्तमान में उपलब्ध लिखित ग्रन्थों में पांचवीं शताब्दी ई. में लिखे हुए पत्र मिलते हैं। इन तथ्यों के आधार पर हम जान सकते हैं कि भारत में लिखने की प्रथा प्राचीनतम है। किन्तु समय-समय पर इसके लिए किन-किन साधनों का उपयोग होता था, इसका दो हजार वर्ष पुराना रूप जानना अति कठिन है। मोटे तौर पर हमें यह मानना होगा कि भारतीय