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जैन दर्शन और संस्कृति विषय-वर्णन है, वह वर्तमान रूप में उपलब्ध नहीं है। इस स्थिति के उपरान्त भी अंगों का अधिकांश भाग मौलिक है। भाषा और रचना-शैली की दृष्टि से वह प्राचीन है। आयारो रचना-शैली की दृष्टि से शेष सब अंगों से भिन्न है। आज के भाषाशास्त्री उसे ढाई हजार वर्ष प्राचीन बतलाते हैं। सूत्रकृतांग, स्थानांग और भगवती भी प्राचीन हैं। इसमें कोई संदेह नहीं, आगम का मूल आज भी सुरक्षित
आगम-लोप के पश्चात् दिगम्बर-परम्परा में जो साहित्य रचा गया, उसमें सर्वोपरि महत्त्व षट्-खण्डागम और कषाय-प्राभृत का है।
पूर्वो और अंगों के बचे-खुचे अंशों के लुप्त होने का प्रसंग आया, तब आचार्य धरसेन (विक्रम की दूसरी शताब्दी) ने भूतबलि और पुष्यदन्त नामक दो साधुओं को श्रुताभ्यास कराया। इन दानों ने षट् खण्डागम की रचना की। लगभग इसी समय में आचार्य गुणधर हुए। उन्होंने कषाय-प्राभृत रचा। ये पूर्वो के शेषांश हैं। इसलिए इन्हें पूर्वो से उद्धृत माना जाता है। इन पर कई प्राचीन टीकाएं लिखी गई हैं। वे उपलब्ध नहीं हैं। जो टीका वर्तमान में उपलब्ध है, वह आचार्य वीरसेन की है। इन्होंने विक्रम संवत् ८७३ में षट् खण्डागम की ७२,००० श्लोक-प्रमाण धवला टीका लिखी एवं कषाय-पाहुड़ पर २०,००० श्लोक-प्रमाण टीका लिखी। वह पूर्ण न हो सकी, बीच में ही उनका स्वर्गवास हो गया। उसे उन्हीं के शिष्य जिनसेनाचार्य ने पूर्ण किया। उसकी पूर्ति विक्रम सम्वत् ८९४ में हुई। उसका शेष भाग ४०,००० श्लोक-प्रमाण और लिखा गया। दोनों को मिलाकर इसका प्रमाण ६०,००० श्लोक होता है। इसका नाम जय-धवला है। यह प्राकृत और संस्कृत के संक्रांति-काल की रचना है। इसलिए इसमें दोनों भाषाओं का मिश्रण है।
षट्-खण्ड का अन्तिम भाग महाबंध है। इसके रचियता आचार्य भूतबलि हैं। यह ४१,००० श्लोक-प्रमाण है। इन तीनों ग्रन्थों में कर्म का बहुत ही सूक्ष्म विवेचन है। लेखन और लेख-सामग्री
जैन-साहित्य के अनुसार लिपि का प्रारम्भ प्रागैतिहासिक है। प्रज्ञापना में १८ लिपियों का उल्लेख मिलता है। भगवान् ऋषभनाथ ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को १८ लिपियाँ सिखाईं, ऐसा उल्लेख विशेषावश्वकभाष्यवृत्ति, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र आदि में मिलता है। जैन-सूत्र वर्णित ७२ कलाओं में लेख-कला का पहला स्थान है। भगवान् ऋषभनाथ ने ७२ कलाओं का उपदेश किया तथा असि, मषि और