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उत्तरकालीन परम्परा
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श्वेताम्बर-दिगम्बर
श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय-भेद कब हुआ—यह अब भी अनुसंधान-सापेक्ष है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सापेक्ष शब्द हैं। इनमें से एक का नामकरण होने के बाद ही दूसरे के नामकरण की आवश्यकता हुई।
उनके पश्चात् आचार्य-परम्परा का भेद मिलता है। श्वेताम्बर-पट्टावलि के अनुसार जम्बू के पश्चात् प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, सम्भूतविजय और भद्रबाहु हुए और दिगम्बर-मान्यता के अनुसार नन्दी, नंदीमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु हुए।
जम्बू के पश्चात् कुछ समय तक दोनों परम्पराएं आचार्यों का भेद स्वीकार करती हैं और भद्रबाह के समय फिर दोनों एक बन जाती हैं। इस भेद और अभेद के सैद्धान्तिक मतभेद का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। उस समय संघ एक था, फिर भी गण और शाखाएं अनेक थीं। आचार्य और चतुर्दशपूर्वी भी अनेक थे। किन्तु प्रभवस्वामी के समय से ही कुछ मतभेद के अंकुर फूटने लगे हों, ऐसा प्रतीत होता है।
किंवदन्ती के अनुसार वीर-निर्वाण ६०९ वर्ष के पश्चात् दिगम्बर-सम्प्रदाय का जन्म हुआ, यह श्वेताम्बर मानते हैं और दिगम्बर-मान्यता के अनुसार वीर-निर्वाण ६०६ में (ईसा पूर्व ७९) श्वेताम्बर-सम्प्रदाय का प्रारंभ हुआ। चैत्यवास परम्परा
वीर-निर्वाण की नवीं शताब्दी (८५०) में चैत्यवास की स्थापना हुई। कुछ मुनि मंदिरों के परिपार्श्व में रहने लगे। वीर-निर्वाण की दसवीं शताब्दी तक इनका प्रभुत्व नहीं बढ़ा। देवर्द्धिगणी के दिवंगत होते ही इनका सम्प्रदाय शक्तिशाली हो गया। आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'सम्बोध-प्रकरण' में इनके आचार-विचार का सजीव वर्णन किया है। । चैत्यवासी शाखा के उद्भव के साथ दूसरा पक्ष संविग्न, विधिमार्ग या सुविहितमार्ग कहलाया। स्थानकवासी
स्थानकवासी संप्रदाय का उद्भव मूर्ति-पूजा के अस्वीकार पक्ष में हुआ। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लोकाशाह ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया और