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जैन दर्शन और संस्कृति आचार की कठोरता का पक्ष प्रबल किया। वे गृहस्थावस्था में ही थे। उनकी परम्परा में ऋषि लवजी, आचार्य धर्मसिंहजी और आचार्य धर्मदासजी प्रतिभाशाली आचार्य हुए। आचार्य धर्मदासजी के निन्यानवे शिष्य थे। उन्होंने अपने विद्वान् शिष्यों को बाईस दलों में बांटा और विभिन्न प्रान्तों में उन्हें धर्म-प्रचार करने के लिए भेजा। उसके बाद लोकाशाह का सम्प्रदाय ‘बाईस टोला' या बाईस-सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आगे चलकर, स्थानकों की मुख्यतया के कारण यही 'स्थानकवासी' सम्प्रदाय के नाम से पहचाना जाने लगा। वर्तमान में इसका नाम 'श्रमण संघ' कर दिया गया है। तेरापंथ
स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य रुघनाथजी के शिष्य ‘सन्तं भीखणजी' (आचार्य भिक्षु) ने विक्रम संवत् १८१७ में तेरापंथ का प्रवर्तन किया। आचार्य भिक्षु ने आचार-शुद्धि और संगठन पर बल दिया। एकसूत्रता के लिए उन्होंने अनेक मर्यादाओं का निर्माण किया, शिष्य-प्रथा को समाप्त कर दिया। थोड़े ही समय में एक आचार्य, एक आचार और एक विचार के लिए तेरापंथ प्रसिद्ध हो. गया। आचार्य भिक्षु आगम के अनुशीलन द्वारा कुछ नये तत्त्वों को प्रकाश में लाए। आध्यात्मिक दृष्टि से वे बहुत ही मूल्यवान् हैं। कुछ तथ्य वर्तमान समाज के पथ-दर्शक बन गए हैं।
अभ्यास १. भगवान् महावीर के पश्चात् जैन धर्म के अन्तर्गत कौन-कौन से
सम्प्रदाय विकसित हुए? उनकी पारस्परिक समानताएं तथा भिन्नताएं
__ स्पष्ट करें।
२. निह्नव किसे कहते हैं? निह्नव कितने और कब-कब हुए?
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