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________________ भगवान् महावीर और उनकी शिक्षाएं १९५ भगवान् ने सब मनुष्यों को अहिंसा के आचरण की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा— १. धर्म की आराधना में स्त्री-पुरुष का भेद नहीं हो सकता । फलस्वरूप श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका – ये चार तीर्थ स्थापित हुए । २. धर्म की आराधना में जाति-पांति का भेद नहीं हो सकता । फलस्वरूप सभी जातियों के लोग उनके संघ मे प्रव्रजित हुए । ३. धर्म की आराधना में क्षेत्र का भेद नहीं हो सकता। वह गाँव में भी की जा सकती है और अरण्य में भी की जा सकती है । फलस्वरूप उनके साधु अरण्यवासी कम संख्या में थे । ४. धर्म की आराधना में वेश का भेद नहीं हो सकता । उसका अधिकार श्रमण को भी है, गृहस्थ को भी है । भगवान् ने अपने श्रमणों से कहा – “धर्म का उपदेश जैसे पुण्यवान् को दो, वैसे ही तुच्छ को दो । जैसे तुच्छ को दो, वैसे ही पुण्यवान् को दो ।" इस व्यापक दृष्टिकोण का मूल असाम्प्रदायिकता और जातीय का अभाव है I महावीर तीर्थ के प्रवर्तक थे । तीर्थ एक सम्प्रदाय है । किन्तु उन्होंने धर्म को सम्प्रदाय के साथ बांधा नहीं। उनकी दृष्टि में जैन सम्प्रदाय की अपेक्षा जैनत्व प्रधान था। जैनत्व का अर्थ है – सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र की आराधना। इनकी आराधना करने वाला अन्य सम्प्रदाय के वेश में भी मुक्त हो जाता है, गृहस्थ के वेश में भी मुक्त हो जाता है। सहज ही प्रश्न होता है— जैन- संस्कृति का स्वरूप इतना व्यापक और उदार था, तब वह लोक-संग्रह करने में अधिक सफल क्यों नहीं हुई? इसके उत्तर में पाँच कारण प्रस्तुत होते हैं— १. जैन दर्शन की सूक्ष्म सिद्धान्तवादिता । २. तपोमार्ग की कठोरता । ३. अहिंसा की सूक्ष्मता । ४. सामाजिक बन्धन का अभाव | ५. जैन साधु- संघ का प्रचार के प्रति उदासीन मनोभाव । ये सारे तत्त्व लोक संग्राहात्मक पक्ष को अशक्त करते रहे हैं । तप और ध्यान का समन्वय भगवान् महावीर का युग धर्म के प्रयोगों का युग था । उस समय हजारों वैदिक सन्यासी धर्म के विविध प्रयोगों में संलग्न । कछ भ्रमण और संन्यासी
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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