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.. जैन दर्शन और संस्कृति चतुःशरण सूत्र
अरहंते सरणं पवज्जामि—मैं अर्हत् की शरण स्वीकार करता हूँ। सिद्धे सरणं पवज्जामि—मैं सिद्ध की शरण स्वीकार करता हूँ।। साहू सरणं पवज्जामि—मैं साधु की शरण स्वीकार करता हूँ।
केवलिपन्नत्तं धम्म सरणं पवज्जामि-मैं केवली-प्रज्ञप्त धर्म की शरण स्वीकार करता हूँ।
भगवान् महावीर ने श्रमणों को उपासना के साथ कोई कर्म-कांड नहीं जोड़ा। उनकी भाषा में उपासना का अर्थ है-पास बैठना। महावीर के अनुयायी श्रमणों के पास जाते और उनसे धर्म का ज्ञान प्राप्त करते । भगवान् ने श्रमणोपासना को बहुत महत्त्व दिया। उन्होंने कहा-“श्रमण की उपासना करने वाला सुनता है, जानता है, हेय और उपादेय का विवेक करता है, नये ग्रंथिपात से बचता है, पुरानी ग्रन्थियों का मोक्ष करता है और मुक्त हो जाता है।" ।
भगवान् महावीर मानवीय समस्या का मूल और उसका समाधान मनुष्य में ही खोजते थे। महावीर का युग देववाद का युग था। कुछ दार्शनिक देवों को बहुत महत्त्व देते थे। पर महावीर ने मानवीय चेतना को दिव्य चेतना से कभी अभिभूत नहीं होने दिया। उनका ध्रुव सिद्धान्त था कि मनुष्य संयम कर सकता है, देव नहीं कर सकता।
इन्द्र ने अपने वैभव का प्रदर्शन कर दशार्णभद्र राजा को पराजित करना चाहा, तब भगवान् ने कहा—'दशार्णभद्र! तुम मनुष्य हो। अपनी शक्ति को जानने वाला मनुष्य देवगण से पराजित नहीं होता।' दशार्णभद्र राज्य को त्यागकर मुनि बन गए। इन्द्र त्याग के साथ स्पर्धा नहीं कर सका। उसका सिर राजर्षि के सामने झुक गया।
- महावीर जब दीक्षित हुए, तब उनकी शिविका को उठाने में सबसे आगे मनुष्य थे, देव नहीं। यह अग्रगामिता का अधिकार मनुष्यों को इसलिए प्राप्त था कि महावीर मनुष्य थे। महावीर ने अपना सारा जीवन इस व्याख्या में बिताया कि ईश्वरीय सृष्टि का सर्जक मनुष्य है. पर मानवीय सृष्टि का सर्जक ईश्वर नहीं है। धर्म की व्यापक धारणा
महावीर की धर्म की धारण बहुत ही व्यापक थी। उसका कारण उनकी आस्था का अहिंसक परम्परा में विकसित होना है। वैदिक परम्परा में धर्म की स्वीकृति एक विशिष्ट वर्ग के लिए थी। उनके सामने महावीर ने श्रमण-परम्परा के शाश्वत स्वर को बहुत प्रभावी पद्धति से उच्चारित किया।