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________________ भगवान् महावीर और उनकी शिक्षाएं १९३ हो सकता है, उतना जीवित मनुष्य और गम्य व्यक्तित्व के प्रति नहीं हो सकता। भगवान् ने मुनष्य को ईश्वर के स्थान पर प्रतिष्ठित किया और यह उद्घोष किया कि ईश्वर कोई कल्पनातीत सत्ता नहीं है, वह मनुष्य का ही चरम विकास है। जो मनुष्य विकास की उच्च कक्षा तक पहुँच जाता है, वह परमात्मा या ईश्वर है। भगवान् महावीर ने परम-आत्मा की पाँच कक्षाएं निर्धारित की। १. अर्हत्-धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक । २. सिद्ध-मुक्त आत्मा। ३. आचार्य-धर्म-तीर्थ के संचालक। ४. उपाध्याय—धर्म-ज्ञान के संवाहक। ५. साधु-धर्म के साधक। इनमें चार कक्षाओं के अधिकारी मनुष्य हैं और एक कक्षा के अधिकारी मुक्त आत्माएं हैं। इनमें पहला स्थान मनुष्य का है, दूसरा स्थान मुक्त आत्मा का है। मुक्त आत्मा मनुष्य-मुवित्त का हेतु नहीं है। उसकी मुक्ति के हेतु अर्हत् हैं इसलिए नमस्कार महामन्त्र में प्रथम स्थान उनको मिला। जैन धर्म-दर्शन व्यक्ति-पूजा को मान्यता नहीं देता। वह गुण का पुजारी है। वह प्रत्येक व्यक्ति की अर्हताओं-योग्यताओं को मान्य कर उसकी पूजा करता है। इसका प्रत्यक्ष साक्ष्य है-नमस्कार महामंत्र और चतुःशरण सूत्र । इनमें किसी व्यक्ति-विशेष का नामोल्लेख नहीं है। नमस्कार महामन्त्र नमस्कार महामन्त्र मन्त्र-शृंखला का विशिष्ट मन्त्र ही नहीं, महामन्त्र है और यह समस्त जैन परम्परा द्वारा एक रूप से मान्य है। इसमें पाँच पद और पैंतीस अक्षर हैं। णमो अरहताणं-मैं अर्हत् (धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक) को नमस्कार करता हूँ। णमो सिद्धाणं-मैं सिद्ध (मुक्तात्मा) को नमस्कार करता हूँ। णमो आयरियाणं-मैं आचार्य (धर्म-तीर्थ के संचालक) को नमस्वार करता हूँ। णमो उवज्झायाणं-मैं उपाध्याय (श्रुतज्ञान के संवाहक) को नमस्कार करता हूँ। णमो लोए सव्वसाहूणं-मैं लोक के समस्त साधुओं को नमस्कार करता हूँ। . - Inco E-cbe
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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