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जैन दर्शन और संस्कृति
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कठोर तपस्या कर रहे थे । कुछ श्रमण और संन्यासी ध्यान की उत्कृष्ट आराधना में लीन थे। आत्मानुभूति के विभिन्न मार्गों की खोज चल रही थी । भगवान् बुद्ध छह वर्ष तक कठोर तपश्चर्या करते रहे। उससे शांति नहीं मिली तब उन्होंने ध्यान मार्ग अपनाया । उससे उन्हें बोधि - लाभ हुआ । उन्होंने मध्यम प्रतिपदा का प्रतिपादन किया, यह स्वाभाविक ही था ।
भगवान् महावीर की दृष्टि हर क्षेत्र में समन्वय की थी । उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में सापेक्षता का प्रयोग किया था । उन्होंने अपनी साधना में तपश्चर्या का पूर्ण बहिष्कार भी नहीं किया और ध्यान को आत्मानुभूति का एकमात्र साधन भी नहीं माना। उन्होंने तपश्चर्या और ध्यान दोनों को मान्यता दी ।
कुछ विद्वानों का मत है कि भगवान् महावीर की साधना-पद्धति बहुत कठोर है । यह सर्वथा निराधार नहीं है । उनकी साधना-पद्धति में कठोर-चर्या के अंश अवश्य हैं, किन्तु वे अनिवार्य नहीं हैं ।
सबकी शक्ति और रुचि समान नहीं होती । कुछ लोगों में तपस्या की रुचि और क्षमता होती है, किन्तु ध्यान की रुचि और क्षमता नहीं होती । कुछ लोगों में ध्यान की रुचि और क्षमता होती है । किन्तु तपस्या की रुचि और क्षमता नहीं होती । भगवान् महावीर ने अपनी साधना-पद्धति में दोनों कोटि की रुचि और क्षमता का समावेश किया । ध्यान की कक्षा तपस्या की कक्षा से ऊंची है । फिर भी तपस्या साधना के क्षेत्र में सर्वथा मूल्यहीन नहीं है । भगवान् महावीर की साधना-पद्धति का वह महत्त्वपूर्ण अंग है । उनकी तप की परिभाषा में ध्यान भी सम्मिलित है।
भगवान् महावीर ने अज्ञानमय तप का प्रबल विरोध किया और ज्ञानमय तप का समर्थन। अहिंसा - पालन में बाधा न आए, उतना तप सब साधकों के लिए आवश्यक है। विशेष तप उन्हीं के लिए है, जिनका दैहिक बल या विराग तीव्र हो । भगवान् महावीर ने धार्मिक जीवन की अनेक कथाएं प्रतिपादित कीं । गृहवासी के लिए चार कक्षाएं हैं
१. सुलभ बोधि—- यह प्रथम कक्षा है । इसमें न धर्म का ज्ञान होता है और न अभ्यास ही । केवल उसके प्रति अज्ञात अनुराग होता है । सुलभ बोधि व्यक्ति निकट भविष्य में धर्माचरण की योग्यता पा सकता है ।
२. सम्यग् - दृष्टि — यह दूसरी कक्षा है । इसमें धर्म का अभ्यास नहीं होता किन्तु उसका ज्ञान होता है ।
३. अणुव्रती - यह तीसरी कक्षा है। इसमें धर्म का ज्ञान और अभ्यास दोनों होते हैं 1