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भगवान् महावीर और उनकी शिक्षाएं
५. जुआ आदि कुव्यसनों का त्याग करना। ६. मीठी वाणी से काम चलाना । कठोर वचन नहीं कहना। ७. तप, नियम, वन्दना आदि धार्मिक अनुष्ठानों में सदा तत्पर रहना । ८. विनम्र रहना। कभी दुराग्रह नहीं करना। ९. जिनवाणी के प्रति अटूट श्रद्धावान रहना।
१०. ऋजु व्यवहार करना। मन की ऋजुता, वचन की ऋजुता और शरीर की ऋजुता रखना।
११. गुरु-वचन को सुनने के लिए तत्पर रहना।
१२. प्रवचन या शास्त्रों की प्रवीणता प्राप्त करना। शिष्टाचार
_ शिष्टाचार के प्रति जैन आचार्य बड़ी सूक्ष्मता से ध्यान देते. हैं। वे आशातना (शिष्टाचार का पालन न करना) को सर्वथा परिहार्य मानते हैं। किसी के प्रति अनुचित व्यवहार करना हिंसा है। आशातना हिंसा है। अभिमान भी हिंसा
श्रावक व्यवहार-दृष्टि से दूसरे श्रावकों को भी नमस्कार करते हैं। धर्म-दृष्टि से उनके लिए वंदनीय मुनि होते हैं।
यह आध्यात्मिक और त्याग-प्रधान संस्कृति का एक संक्षिप्त रूप है। इसका सामाजिक जीवन पर भी प्रतिबिम्ब पड़ा है। भगवान् महावीर के समकालीन धर्म-सम्प्रदाय
भगवान् महावीर का युग धार्मिक मतवादों और कर्मकाण्डों से संकुल था। बौद्ध साहित्य के अनुसार उस समय तिरेसठ श्रमण-सम्प्रदाय विद्यमान थे। जैन साहित्य में तीन सौ तिरसेंठ धर्म-मतवादों का उल्लेख मिलता है। संक्षेप में सारे सम्प्रदाय चार वर्गों में समाते थे
१. क्रियावाद-आत्मा, पुनर्जन्म और कर्मवाद में विश्वास रखने वाला। २. अक्रियावाद-आत्मा, पुनर्जन्म और कर्मवाद में विश्वास न रखने वाला। ३. विनयवाद–अहं-विसर्जन/समर्पण को सर्वोपरि मूल्य देने वाला। ४. अज्ञानवाद-ज्ञान को दुःख का मूल मानने वाला।
भगवान् महावीर ने चारों वादों की समीक्षा कर क्रियावाद का सिद्धान्त स्वीकार किया। उनका स्वीकार एकांगी दृष्टि से नहीं था, इसलिए उनके दर्शन को सापेक्ष-क्रियावाद की संज्ञा दी जा सकती है।