________________
१८८
जैन दर्शन और संस्कृति ३. वन्दना आचार्य को द्वादशावर्त-वन्दना। ४. प्रतिक्रमण-वृत दोषों की आलोचना। ५. कायोत्सर्ग-काया का स्थिरीकरण । ६. प्रत्याख्यान-त्याग करना।
इससे निवृत्त होकर सूर्योदय होते-होते मुनि भण्ड-उपकरणों का प्रतिलेखन करे, उन्हें देखे। उसके पश्चात् हाथ जोड़कर गुरु से पूछे—मैं क्या करूँ? आप मुझे आज्ञा दें-मैं किसी की सेवा में लगू या स्वाध्याय में? यह पूछने पर आचार्य सेवा में लगाए तो ग्लानि-रहित भाव से सेवा करे और यदि स्वाध्याय में लगाए तो स्वाध्याय करे। दिनचर्या के प्रमुख अंग हैं—स्वाध्याय और ध्यान। कहा है :
स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां ध्यानात् स्वाध्यायामामनेत् । ध्यान-स्वाध्याय-संपत्त्या परमात्मा प्रकाशे॥
-स्वाध्याय के पश्चात् ध्यान करे और ध्यान के पश्चात् स्वाध्याय। इस प्रकार ध्यान और स्वाध्याय के क्रम से परमात्मा प्रकाशित हो जाता है।
श्रावक
धर्म की आराधना में जैन साधु-साध्वियाँ संघ के अंग हैं, वैसे श्रावक-श्राविकाएं भी हैं। ये चारों मिलकर ही चतुर्विध संघ को पूर्ण बनाते हैं। भगवान् ने श्राविक-श्राविकाओं को साधु-साध्वियों के माता-पिता तुल्य कहा है।
श्रावक की धार्मिकचर्या यह है: १. सामायिक के अंगों का अनुपालन करना। २. दोनों पक्षों में पौषधोपवास करना ।
आवश्यक कर्म जैसे साधु-संघ के लिए हैं, वैसे ही श्रावक संघ के लिए भी हैं। श्रावक के गुण
अणुव्रतों का पालन करने वाला श्रद्धा-सम्पन्न व्यक्ति कहलाता है। उसके मुख्य गुण ये हैं
१. ग्रहण किये हुए व्रतों का सम्यक् पालन करना। २. जहाँ बहुश्रुत साधार्मिक लोग हों, उस स्थान में आना-जाना । ३. बिना प्रयोजन दूसरों के घर न जाना। ४. चमकीला-भड़कीला वस्त्र न पहनना। सदा सादगीमय जीवन बिताना ।