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भगवान् महावीर और उनकी शिक्षाएं
१८७ को जितने आध्यात्मिक अधिकार मिलते हैं, उतने ही स्त्रियों को भी अधिकार हो सकते हैं। इन आध्यात्मिक अधिकारों में महावीर ने कोई भेद-बुद्धि नहीं रखी, जिसके परिणामस्वरूप उनके शिष्यों में जितने श्रमण थे, उनसे ज्यादा श्रमणियाँ थीं। वह प्रथा आज तक जैन धर्म में चली आयी है।
भगवान् ने गृहस्थों को धर्म का उपदेश दिया। उसे स्वीकार करने वाले पुरुष और स्त्रियाँ, उपासक और उपासिकाएं या श्रावक और श्राविकाएं कहलाए। भगवान् के आनन्द आदि दस प्रमुख श्रावक थे। ये बारह-व्रती थे। इनकी जीवनचर्या का वर्णन करने वाला एक अंग-ग्रन्थ 'उपासकदशा' है। जयन्ती आदि श्राविकाएं थीं, जिनके प्रौढ़ तत्त्व-ज्ञान की सूचना भगवती सूत्र से मिलती है। धर्म-आराधना के लिए भगवान् का तीर्थ सचमुच तीर्थ बन गया। भगवान् ने तीर्थ-चतुष्टय (साधु, साध्वी, श्रावक श्राविका) की स्थापना की, इसलिए वे तीर्थंकर कहलाए। संघ-व्यवस्था
सभी तीर्थंकरों की भाषा में धर्म का मौलिक रूप एक रहा है। धर्म का साध्य मुक्ति है, उसका साधन द्विरूप नहीं हो सकता। उसमें मात्रा-भेद हो सकता है, किन्तु स्वरूप-भेद नहीं हो सकता।
जैन मनीषियों का चिन्तन साधना के पक्ष में जितना वैयक्तिक है, उतना ही साधना-संस्थान के पक्ष में सामुदायिक है। जैन तीर्थंकरों ने धर्म को एक ओर वैयक्तिक कहा, दूसरी ओर तीर्थ का प्रवर्तन किया-श्रमण-श्रमणी और श्रावक-श्राविकाओं के संघ की स्थापना की।
भगवान् ने श्रमण-संघ की बहुत ही सुदृढ़ व्यवस्था की। अनुशासन की दृष्टि से भगवान् का संघ सर्वोपरि था। पाँच महाव्रत और अणुव्रत-ये मूलगुण थे। इनके अतिरिक्त उत्तर गुणों की व्यवस्था की। विनय, अनुशासन और आत्म-विजय पर अधिक बल दिया। व्यवस्था की दृष्टि से श्रमण-संघ को ग्यारह या नौ भागों में विभक्त किया गया। पहले सात गणधर सात गुणों के और ..आठवें-नौवें तथा दसवें-ग्यारहवें क्रमश: आठवें और नौवें गण के प्रमुख थे। मुनि की दिनचर्या
__ अपर रात्रि में उठकर आत्मालोचन व धर्म-जागरिका करना—यह चर्या का पहला अंग है। स्वाध्याय, ध्यान आदि के पश्चात् आवश्यक कर्म करना । आवश्यक अवश्य करणीय कर्म छह हैं :
१. सामायिक-समभाव का अभ्यास, उसकी प्रतिज्ञा का पुनरावर्तन । २. चतुर्विशतिस्तव-चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति ।