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________________ १८६ जैन दर्शन और संस्कृति समवसरण में आए। उन्हें जीव के बारे में सन्देह था। भगवान् ने उनके गूढ़ प्रश्न को स्वयं सामने ला रखा। इन्द्रभूति सहम गए। उन्हें सर्वथा प्रच्छन्न अपने विचार के प्रकाशन पर अचरज हुआ। उनकी अन्तर-आत्मा भगवान् के चरणों में झुक गई। भगवान् ने उनका सन्देह-निवर्तन किया। वे उठे, नमस्कार किया और श्रद्धापूर्वक भगवान् के शिष्य बन गए। भगवान् ने उन्हें छह जीव-निकाय, पाँच महावत और पच्चीस भावनाओं का उपदेश दिया। इन्द्रभूति गौतमगोत्री थे। जैन-साहित्य में इनका सुविश्रुत नाम गौतम है। भगवान् के साथ इनके संवाद और प्रश्नोत्तर इसी नाम से उपलबध होते हैं। ये भगवान् के पहले गणधर और ज्येष्ठ शिष्य बने। इन्द्रभूति की घटना सुन दूसरे पण्डितों का क्रम बन्ध गया। एक-एक कर वे सब आए और भगवान् के शिष्य बन गए। उन सबके एक-एक संदेह था १. इन्द्रभूति-जीव है या नहीं? २. अग्निभूति-कर्म है या नहीं? ३. वायुभूति-शरीर आदि जीव एक है या भिन्न? ४. व्यक्त-पृथ्वी आदि भूत हैं या नहीं? ५. सुधर्मा—यहाँ जो जैसा है वह परलोक में भी वैसा होता है या नहीं? ६. मंडितपुत्र—बन्ध-मोक्ष है या नहीं? ७. मौर्यपुत्र—देव हैं या नहीं? ८. अकम्पित-नरक है या नहीं? ९. अचलभ्राता-पुण्य ही मात्रा-भेद से सुख-दुःख का कारण बनता है या पाप उससे पृथक है? १०. मेतार्य-आत्मा होने पर भी परलोक है या नहीं? ११. प्रभास-मोक्ष है या नहीं? भगवान् उनके प्रच्छन्न संदेहों को प्रकाश में लाते गए और वे उनका समाधान पा अपने को समर्पित करते गए। इस प्रकार पहले प्रवचन में ही भगवान् की शिष्य-सम्पदा समृद्ध हो गई-४४०० शिष्य बन गए। भगवान् ने इन्द्रभूति आदि ग्यारह विद्वान शिष्यों को गणधर पद पर नियुक्त किया और अब भगवान् महावीर का तीर्थ विस्तार पाने लगा। स्त्रियों ने प्रव्रज्या ली। साध्वी-संघ का नेतृत्व चन्दनबाला को सौंपा। आगे चलकर १४ हजार साधु और ३६ हजार साध्वियाँ हुईं। . स्त्रियों को साध्वी होने का अधिकार देना भगवान् महावीर का विशिष्ट मनोबल था। इस समय दूसरे धर्म के आचार्य ऐसा करने में हिचकते थे। पुरुषों
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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