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भगवान् महावीर और उनकी शिक्षाएं
१८५ कुछेक व्यक्ति ऐसे थे, जो उनको हटाते। बहत से लोग ऐसे थे, जो कुत्तों को भगवान् को काटने के लिए प्रेरित करते। वहाँ जो दूसरे श्रमण थे वे लाठी रखते, फिर भी कुत्तों के उपद्रव से मुक्त नहीं थे। भगवान् के पास अपने बचाव का कोई साधन नहीं था, फिर वे शांतभाव से वहाँ घूमते रहे।
भगवान् का संयत अनुत्तर था। वे स्वस्थ दशा में भी कम खाते। रोग होने पर भी वे औषध नहीं लेते। अन्न-जल के बिना दो दिन, पक्ष, मास, छह मास बिताए। उत्कटुक, गोदोहिका आदि आसन किए, ध्यान किया, कषाय को जीता, आसक्ति को जीता, यह सब निरपेक्षभाव से किया। भगवान् ने मोह को जीता, इसलिए वे 'जिन' कहलाए। भगवान् की अप्रमत्त साधना सफल हुई।
ग्रीष्म ऋतु का वैशाख महीना था। शुक्ल दशमी का दिन था। छाया पूर्व की ओर ढल चुकी थी। पिछले पहर का समय, विजय मुहूर्त और उत्तरा-फाल्गुनी का योग था। उस बेला में भगवान् महावीर जंभियग्राम नगर के बाहर ऋजुबालिका नदी के उत्तर किनारे श्यामक गाथापति की कृषि-भूमि में व्यावर्त नामक चैत्य के निकट शालवृक्ष के नीचे ‘गोदोहिका' आसन में बैठे हुए ईशानकोण की ओर मुँह कर सूर्य का आतप ले रहे थे।
दो दिन का निर्जल उपवास था। भगवान् शुक्ल ध्यान में लीन थे। ध्यान का उत्कर्ष बढ़ा। क्षपक श्रेणी ली। भगवान् उत्क्रांत बन गए। उत्क्रांति के कुछ ही क्षणों में वे आत्म-विकास की आठवीं, नवीं और दसवीं भूमिका को पार कर गए। बारहवीं भूमिका में पहुँचते ही उनके मोह का बन्धन भी पूर्णत: टूट गया। वे वीतराग बन गए। तेरहवीं भूमिका का प्रवेश-द्वार खुला। वहाँ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के बन्धन भी पूर्णत: टूट गए। भगवान् अब अनन्त-ज्ञानी, अनन्त-दर्शनी, अनन्त-आनन्दमय और अनन्त-वीर्यवान् बन गए। अब वे सर्वलोक के, सर्व जीवों के सर्वभाव जानने-देखने लगे। उनका साधना-काल समाप्त हो गया। अब वे सिद्धि-काल की मर्यादा में पहुँच गए, तेरहवें वर्ष के सातवें महीने में केवली बन गए। धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन
भगवान् जंभियग्राम नगर से विहार कर मध्यम पावापुरी पधारे। वहाँ सोमिल नामक ब्राह्मण ने एक विराट् यज्ञ का आयोजन कर रखा था। उस अनुष्ठान की पूर्ति के लिए वहाँ इन्द्रभूति प्रमुख ग्यारह वेदविद् ब्राह्मण आये हुए थे।
भगवान् की जानकारी पा उनमें पांडित्य का भाव जागा। इन्द्रभूति उठे। भगवान् को पराजित करने के लिए वे अपनी शिष्य-सम्पदा के साथ भगवान् के