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भगवान् पभ से पार्श्व तक
१७७ समय बीता। अन्त में श्री कृष्ण के समझाने पर वे विवाह करने के लिए राजी हो गए।
भोज कल के राजन्य उग्रसेन की पुत्री राजीमती के साथ उनका विवाह निश्चित हुआ। विवाह से पूर्व किए जाने वाले सारे रीति-रिवाज सम्पन्न हुए। विवाह का दिन आया। राजीमती अलंकृत हुई। कुमार अरिष्टनेमि भी अलंकृत होकर हाथी पर आरूढ़ हुए। मंगलदीप सजाए गए। बाजे बजने लगे। वर-यात्रा प्रारम्भ हुई। हजारों लोगों ने उसे देखा। वह विवाह-मण्डप की ओर धीरे-धीरे बढ़ रही थी। एक स्थान पर अरिष्टनेमि को करुण शब्द सुनाई दिए। उन्होंने महावत से पूछा-'ये शब्द कहाँ से आ रहे हैं?' महावत ने कहा—'देव! ये शब्द पशुओं की चीत्कार के हैं। वे आपके विवाह में सम्मिलित होने वाले व्यक्तियों के लिए भोज्य बनेंगे। मरण-भय से वे आक्रन्दन कर रहे हैं।'
__ अरिष्टनेमि का मन खिन्न हो गया। उन्होंने कहा—'यह कैसा आनन्द! यह कैसा विवाह ! जहाँ हजारों मूक पशुओं का वध किया जाता है। यह तो संसार में परिभ्रमण का हेतु है। मैं इसमें क्यों पडूं !' उन्होंने हाथी को वहाँ से अपने निवास-स्थान की ओर मोड़ दिया। वे माता-पिता के पास गए और प्रव्रजित होने की इच्छा व्यक्त की। माता-पिता की आज्ञा प्राप्त करके वे तीन दिन की तपस्या में उज्जयंत पर्वत पर सहस्राम्रबन में श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन एक हजार व्यक्तियों के साथ प्रव्रजित हो गए।
उन्हें चोपन दिन के बाद आश्विन कृष्णा अमावस्या के दिन कैवल्य प्राप्ति हो गई। वे केवली बने। वे धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कर बाईसवें तीर्थंकर हो गए।
छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार श्रीकृष्ण के आध्यात्मक गुरु घोर आंगिरस ऋषि थे।
जैन आगमों के अनुसार श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक गुरु बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि थे। घोर आंगिरस ने श्रीकृष्ण को जिस धारणा का उपदेश दिया है. वह जैन परम्परा से भिन्न नहीं है। 'तू अक्षित-अक्षय है, अच्युत-अविनाशी है और प्राण-संशित-अतिसूक्ष्मप्राण है।' इस त्रयीं को सुनकर श्रीकृष्ण अन्य विद्याओं के प्रति तृष्णाहीन हो गए। जैन दर्शन आत्मवाद की भित्ति पर अवस्थित है। घोर
आंगिरस ने जो उपदेश दिया, उसका सम्बन्ध आत्मवादी धारणा से है। 'इसीभासिय' में आंगिरस नामक प्रत्येक बुद्ध का उल्लेख है। वे भगवान्-अरिष्टनेमि के शासनकाल में हुए थे। इस आधार पर यह सम्भावना की जा सकती है कि घोर आंगिरस या तो अरिष्टनेमि के शिष्य या उनके विचारों से प्रभावित कोई सन्यासी रहे होंगे।