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________________ जैन दर्शन और संस्कृति सम्राट्—वऱ्या सम्राट् अमर रहेगा ? कभी नहीं । मौत के मुँह से कोई नहीं बच सकता। तुम एक जीवन की मौत से डर गये । न तुमने नाटक देखे और न गीत सुने । मैं मौत की लम्बी परम्परा से परिचित हूँ। यह साम्राज्य मुझे नहीं लुभा सकता । १७६ सम्राट् की करुणापूर्ण आंखों ने अभियुक्त को अभय बना दिया । मृत्यु दण्ड उसे लिए केवल शिक्षाप्रद था । सम्राट् की अमरत्व-निष्ठा ने उसे मौत से सदा के लिए उबार लिया । श्रामण्य की ओर सम्राट् भरत नहाने को थे । स्नानघर में गये, अंगूठी खोली । अंगुली की शोभा घट गई। फिर उसे पहना, शोभा बढ़ गई । 'पर पदार्थ से शोभा बढ़ती है, यह सौन्दर्य कृत्रिम है । ' - इस चिन्तन में लगे और लगे सहज सौन्दर्य ढूँढ़ने । भावना का प्रवाह आगे बढ़ा। कर्म - मल को धो डाला । क्षणों में ही मुनि बने, न वेश बदला, न राजप्रासाद से बाहर निकले, किन्तु इनका आन्तरिक संयम इनसे बाहर निकल आया और वे पिता के पथ पर चल पड़े । ४. दुःषम- सुषमा ऋषभ के पश्चात् जैन धर्म के चौथे तीर्थंकर तक काल का तीसरा चरण समाप्त हुआ। काल का चौथा चरण दुःषम - सुषमा आया, जिसमें शेष बीस तीर्थंकर हुए । तीर्थंकर अरिष्टनेमि जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि हुए। उस समय सोरियपुर नगर में अन्धक कुल के नेता समुद्रविजय राज्य करते थे। उनकी पटरानी का नाम शिवा था । उसके चार पुत्र थे - अरिष्टनेमि, रथनेमि, सत्यनेमि और दृढ़नेमि । अरिष्टनेमि का जीव जब शिवारानी के गर्भ में आया तब माता ने चौदह स्वप्न देखे । श्रावण - कृष्णा पंचमी को रानी ने पुत्र रत्न का प्रसव किया। स्वप्न में रिष्टरत्नमय नेमि देखे जाने के कारण पुत्र का नाम अरिष्टनेमि रखा । अरिष्टनेमि युवा हुए। इंद्रिय विषयों की ओर उनका अनुराग नहीं था । वे विरक्त थे। पिता समुद्रविजय ने सोचा कि ऐसा उपक्रम किया जाये जिससे कि अरिष्टनेमि विषयों के प्रति आसक्त होकर गृहस्थ जीवन जीये । अनेक प्रयत्न किये। अनेक प्रलोभन दिए गए। पर वे अपने लक्ष्य से विचलित नहीं हुए। कुछ
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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