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भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक
१७५ हैं। वे भाई मझसे छोटे नहीं हैं, उनका चरित्र विशाल है। मेरे अहं ने मुझे छोटा बना दिया। अब मुझे अविलम्ब भगवान् के पास चलना चाहिए।'
पैर उठे कि बन्धन टूट पड़े। नम्रता के उत्कर्ष में समता का प्रवाह बह चला। बाहुबली केवली बन गए। सत्य का साक्षात् ही नहीं हुआ, वे स्वयं सत्य बन गए। शिव अब उनका आराध्य नहीं रहा, वे स्वयं शिव बन गए। आनन्द अब उनके लिए प्राप्य नहीं रहा, वे स्वयं आनन्द बन गए। भरत का अनासक्त योग
भरत अब असहाय जैसा हो गया। भाई जैसा शब्द उसके लिए अर्थवान न रहा। वह सम्राट् बना रहा, किन्तु उसका हृदय अब साम्राज्यवादी नहीं रहा। पदार्थ मिलते रहे, पर आसक्ति नहीं रही। वह उदासीन भाव से राज्य-संचालन करने लगा।
भगवान् अयोध्या आए। प्रवचन हुआ। एक प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा। 'भरत मोक्ष-गामी ।' एक सदस्य भगवान् पर बिगड़ गया और उन पर पुत्र के पक्षपात का आरोप लगाया। भरत ने उसे फांसी की सजा सुना दी। वह घबरा गया। भरत के पैरों में गिर पड़ा और अपराध के लिए क्षमा माँगी। भरत ने कहा—'तेल भरा कटोरा लिए सारे नगर में धूम आओ। तेल की एक बूंद नीचे न डालो, तो तुम छूट सकते हो। दूसरा कोई विकल्प नहीं है।'
अभियुक्त ने वैसा ही किया। वह बड़ी सावधानी से नगर में घूम आया और सम्राट के सामने प्रस्तुत हुआ।
सम्राट ने पूछा-नगर में घूम आये? 'जी हाँ ।' अभियुक्त ने सफलता के भाव से कहा। सम्राट-नगर में कुछ देखा तुमने? अभियुक्त नहीं सम्राट! कुछ नहीं देखा। सम्राट–कई नाटक देखे होंगे? अभियुक्त-जी नहीं! मौत के सिवा कुछ भी नहीं देखा। सम्राट-कुछ गीत तो सुने होंगे?
अभियुक्त-सम्राट की साक्षी से कहता हूँ, मौत की गुनगुनाहट के सिवा कुछ नहीं पता
सम्राट-मौत का इतना डर?
अभियुक्त-सम्राट् इसे क्या जाने ? यह मृत्युदण्ड पाने वाला ही समझ सकता है।