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जैन दर्शन और संस्कृति वात्सल्य की मर्यादा को जानते हुए भी रणभूमि में उतर आए। दृष्टि-युद्ध, मुष्टि-युद्ध
आदि पाँच प्रकार के युद्ध होने निश्चित हुए। उन सब में सम्राट पराजित हुआ। विजयी हुआ बाहुबली। भरत को छोटे भाई से पराजित होना बहुत चुभा। वह आवेग को रोक न सका। मर्यादा को तोड़ बाहुबली पर चक्र का प्रयोग कर डाला। इस अप्रत्याशित घटना से बाहुबली का खून उबल गया। प्रेम का स्रोत एक साथ ही सूख गया। बचाव की भावना से विहीन हाथ उठा तो सारे सन्न रह गए। भूमि
और आकाश बाहुबली की बिरुदावलियों से गूंज उठे। भरत अपने अविचारित प्रयोग से लज्जित हो सिर झुकाए खड़ा रहा। सारे लागे भरत की भूल को भुला देने की प्रार्थना में लग गये।
एक साथ लाखों कण्ठों से एक ही स्वर गूंजा—'महान् पिता के पुत्र भी महान् होते हैं। सम्राट ने अनुचित किया, पर छोटे भाई के हाथ से बड़े भाई की हत्या और अधिक अनुचित कार्य होगा। महान् ही क्षमा कर सकता है। क्षमा करने वाला कभी छोटा नहीं होता। महान् पिता के महान् पुत्र! हमें क्षमा कीजिए, हमारे सम्राट को क्षमा कीजिए।' इन लाखों कण्ठों की विनम्र स्वर-लहरियों ने बाहुबली के शौर्य को मार्गान्तरित कर दिया। बाहुबली ने अपने आपको सम्हाला । महान् पिता की स्मृति ने वेग का शमन किया। उठा हुआ हाथ विफल नहीं लौटता। उसका प्रहार भरत पर नहीं हुआ। वह अपने सिर पर लगा। सिर के बाल नोच डाले और अपने पिता के पथ की ओर चल पड़ा।
बाहुबली के पैर आगे नहीं बढ़े। वे पिता की शरण में चले गए, पर उनके पास नहीं गए। अहंकार अब भी बच रहा था। पूर्व-दीक्षित छोटे भाइयों को नमस्कार करने की बात आते ही उनके पैर रुक गये। वे एक वर्ष तक ध्यान-मुद्रा में खड़े रहे। विजय और पराजय की रेखाएं अनगिनत होती हैं। असंतोष पर विजय पाने वाले बाहुबली अहं से पराजित हो गए। उनका त्याग और क्षमा उन्हें
आत्म-दर्शन की ओर ले गए। उनके अहं ने उन्हें पीछे ढकेल दिया। बहुत लम्बी ध्यान-मुद्रा के उपरान्त भी आगे नहीं बढ़ सके।
'ये पैर रुक क्यों रहे हैं? सरिता का प्रवाह रुक क्यों रहा है?' ये शब्द बाहुबली के कानों को बींध हृदय को पार कर गए। बाहुबली ने आंखों खोलीं। देखा, बाह्मी और सुन्दरी सामने खड़ी हैं। बहनों की विनम्र-मुद्रा को देख उनकी आंखें झुक गई।
___ 'अवस्था से छोटे-बड़े की मान्यता एक व्यवहार है। वह सार्वभौम सत्य नहीं है। ये मेरे पैर गणित के छोटे-से प्रश्न में उलझ गए। छोटे भाइयों को नमस्कार कैसे करूँ-इस तुच्छ चिन्तन में मेरा महान्-साध्य विलीन हो गया। अवस्था लौकिक मानदण्ड है। लोकोत्तर जगत् में छुटपन और बड़प्पन के मानदण्ड बदल देते