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भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक
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जगत् ही ऐसा है, जहाँ सब कुछ पाने पर भी व्यक्ति को अकिंचनता की अनुभूति होती रहती है ।
युद्ध का पहला चरण
दूत के मुँह से भरत का संदेश सुन कर बाहुबलीजी की भृकुटि तन गई । दबा हुआ रोष उभर आया। कांपते होठों से कहा- ' - 'दूत ! भरत अब भी भूखा है ? अपने अट्ठानवे सगे भाइयों का राज्य हड़पकर तृप्त नहीं बना ? कैसी मनोदशा है ? साम्राज्यवादी के लिए निषेध जैसा कुछ होता ही बाहुबल किससे कम है ? क्या मैं दूसरे राज्यों को नहीं हड़प सकता ? किन्तु ' यह मानवता का अपमान, शक्ति का दुरुपयोग और व्यवस्था का भंग है, मैं ऐसा कार्य नहीं कर सकता । व्यवस्था के प्रवर्तक हमारे पिता हैं । उनके पुत्रों को तोड़ने में लज्जा का अनुभव होना चाहिये । शक्ति का प्राधान्य पशु-जगत का चिह्न है मानव-जगत् में विवेक का प्राधान्य होना चाहिए । शक्ति का सिद्धान्त पनपा, तो बच्चों और बूढ़ों का क्या बनेगा ? युवक उन्हें चट कर जायेंगे । रोगी, दुर्बल और अपंग के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं रहेगा । फिर तो यह सारा विश्व रौद्र बन जाएगा। क्रूरता के साथी हैं— ज्वाला - स्फुलिंग, ताप और सर्वनाश । क्या मेरा भाई अभी-भी समूचे जगत् को सर्वनाश की ओर धकेलना चाहता है ? आक्रमण एक उन्माद है। आक्रांता उससे बेभान हो दूसरों पर टूट पड़ता है ।
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हाय ! यह नहीं । मेरा
'भरत ने ऐसा ही किया । मैं उसे चुप्पी साधे देखता रहा । अब उस उन्माद के रोग का शिकार मैं हूँ । हिंसा से हिंसा की आग नहीं बुझती - यह मैं जानता हूँ। आक्रमण को अभिशाप मानता हूँ । किन्तु आक्रमणकारी को सहूँ — यह मेरी तितिक्षा (सहनशक्ति) से परे है । तितिक्षा मनुष्य के उदात्त चरित्र की विशेषता है । किन्तु उसकी भी एक सीमा है। मैंने उसे निभाया है । तोड़ने वाला समझता ही नहीं, तो आखिर जोड़ने वाला कब तक जोड़े ?
भरत की विशाल सेना 'बहली' की सीमा पर पहुँच गई। इधर बाहुबली अपनी छोटी-सी सेना सजा आक्रमण को विफल करने आ गया। भाई-भाई के बीच युद्ध छिड़ गया। स्वाभिमान और स्वदेश-रक्षा की भावना से भरी हुई बाहुबली की छोटी-सी सेना ने सम्राट् की विशाल सेना को भागने के लिए विवश कर दिया । सम्राट् की सेना ने फिर पूरी तैयारी के साथ आक्रमण किया । दुबारा भी मुँह की खानी पड़ी। लम्बे समय तक आक्रमण और बचाव की लड़ाइयाँ होती रहीं । आखिर दोनों भाई सामने आ खड़े हुए। तादात्म्य आंखों पर छा गया । संकोच के घेरे में दोनों ने अपने आपको छिपाना चाहा, किन्तु दोनों विवश थे । एक के सामने साम्राज्य के सम्मान का प्रश्न था, दूसरे के सामने स्वाभिमान का । वे विनय और