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________________ जैन दर्शन और संस्कृति 'राज्य रूपी पक्षी का दूसरा पर दुर्बल है । वह है कायरता । मैं तुम्हें कायर बनने की सलाह भी कैसे दे सकता हूँ? पुत्रो ! मैं तुम्हें ऐसा राज्य देना चाहता हूँ जिसके साथ लड़ाई और कायरता की कड़ियाँ जुड़ी हुई नहीं हैं ।' १७२ 1 भगवान् की आश्वासन-भरी वाणी सुन वे सारे खुशी से झूम उठे । आशाभरी दृष्टि से एकटक भगवान् की ओर देखने लगे । भगवान् की भावना को वे नहीं पकड़ सके । भौतिक जगत् की सत्ता और अधिकारों से परे कोई राज्य हो सकता है - यह उनकी कल्पना में नहीं समाया । उनकी किसी विचित्र भू-खंड को पाने की लालसा तीव्र हो उठी । भगवान् इसलिए तो भगवान् थे कि उनके पास कुछ भी नहीं था । उत्सर्ग की चरम रेखा पर पहुँचने वाले ही भगवान् बनते हैं । संग्रह के चरम बिन्दु पर पहुँच कोई भगवान् बना हो - ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है। भगवान् ने कहा—‘संयम का क्षेत्र निर्बाध राज्य है। इसे लो । न तुम्हें वहाँ कोई अधीन करने आएगा और न वहाँ युद्ध और कायरता का प्रसंग होगा ।' पुत्रों ने देखा, पिता उन्हें राज्य त्यागने की सलाह दे रहे हैं । पूर्व कल्पना का पटाक्षेप हो गया । अकल्पित चित्र सामने आया । आखिर वे भी भगवान् के बेटे थे । भगवान् के मार्ग-दर्शन का सम्मान किया। वे राज्य को त्याग स्व-राज्य की ओर चल पड़े। स्व-राज्य की अपनी विशेषताएं हैं। इसे पाने वाला सब कुछ पा जाता है। राज्य की मोहकता तब तक रहती है, जब तक व्यक्ति स्व-राज्य की सीमा में नहीं चला आता । एक संयम के बिना व्यक्ति सब कुछ पाना चाहता है। संयम के पाने पर कुछ भी पाए बिना सब कुछ पाने की कामना नष्ट हो जाती है । त्याग शक्तिशाली अस्त्र है। इसका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है । भरत का आक्रामक दिल पसीज गया । वह दौड़ा-दौड़ा आया । अपनी भूल पर पछतावा हुआ । भाइयों से क्षमा माँगी । स्वतन्त्रतापूर्वक अपना-अपना राज्य सम्भालने को कहा । किन्तु वे अब राज्य - लोभी सम्राट भरत के भाई नहीं रहे थे । वे अकिंचन जगत् के भाई बन चुके थे। भरत का भ्रातृ-प्रेम अब उन्हें नहीं ललचा सका । वे उसकी लालची 'आंखों को देख चुके थे। इसलिए उसकी गीली आंखों का उन पर कोई असर नहीं हुआ । भरत हाथ मलते हुए घर लौट गया । 1 साम्राज्यवाद एक मानसिक प्यास है । वह उभरने के बाद सहसा नहीं बुझती । भरत ने एक-एक कर सारे राज्यों को अपने अधीन कर लिया । बाहुबली को उसने नहीं छुआ। अट्ठानवे भाइयों के राज-त्याग को वह अब भी नहीं भूला था । अन्तर्द्वन्द्व चलता रहा । एकछत्र राज्य का सपना पूरा नहीं हुआ। असंयम का 1
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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