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________________ भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक १७१ ऋषभ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को ७२ कलाएं सिखलाईं। कनिष्ठ पुत्र बाहुबली को प्राणी की लक्षण-विद्या का उपदेश दिया। बड़ी पुत्री ब्राह्मी को अठारह लिपियों और सुन्दरी को गणित अध्ययन कराया। धनुर्वेद, अर्थशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, क्रीड़ा-विधि आदि-आदि विद्याओं का प्रवर्तन कर लोगों को सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत बना दिया। ___ कर्त्तव्य-बुद्धि से लोक व्यवस्था का प्रवर्तन कर ऋषभ राज्य करने लगे। बहुत लम्बे समय तक वे राजा रहे । ____ जीवन के अन्तिम भाग में वे राज्य त्याग कर मुनि बने। मोक्ष-धर्म का प्रवर्तन हुआ। वर्षों की साधना के बाद भगवान् ऋषभ को कैवल्य-लाभ हुआ। उन्होंने साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविक-इन चार तीर्थों की स्थापना की। मुनि-धर्म के पाँच महाव्रत और गृहस्थ-धर्म के बारह व्रतों का उपदेश दिया। साधु-साध्वियों का संघ बना। श्रावक-श्राविकाएं भी बनीं। साम्राज्य-लिप्सा भगवान् ऋषभ कर्मयुग के पहले राजा थे। अपने सौ पुत्रों को अलग-अलग राज्यों का भार सौंप वे मुनि बन गए। सबसे बड़ा पुत्र..भरत था। वह चक्रवर्ती सम्राट बनना चाहता था। उसने अपने ९८ भाइयों को अपने अधीन करना चाहा। सबके पास दूत भेजे। ९८ भाई मिले। आपस में परामर्श कर भगवान् ऋषभ के पास पहुंचे। सारी स्थिति भगवान् ऋषभ के सामने रखी। दुविधा की भाषा में पूछा-'भगवन्! क्या करें? बड़े भाई से लड़ना नहीं चाहते और अपनी स्वतन्त्रता को खोना भी नहीं चाहते। भाई भरत ललचा गया है। आपके दिए हुए राज्य को वह हमसे वापस लेना चाहता है। हम उससे लडें, तो भ्रातृ-युद्ध की गलत परम्परा पड़ जाएगी। बिना लड़े राज्य सौंप दें, तो साम्राज्य का रोग बढ़ जाएगा। परमपिता ! इस दुविधा से उबारिये।' __ भगवान् ने कहा—'पुत्रों! तुमने ठीक सोचा। लड़ना भी बुरा है और क्लीव होना भी बुरा है। राज्य दो परों वाला पक्षी है। उसका मजबूत पर युद्ध है। उसकी उड़ान में पहले वेग होता है, अन्त में थकान। वेग में से चिनगारियाँ उछलती हैं। उड़ान वाले लोग उसमें जल जाते हैं। उड़ने वाला चलता-चलता थक जाता है, शेष रहती है निराशा और अनुताप। _ 'पुत्रो ! तुम्हारी समझ सही है। युद्ध बुरा है-विजेता के लिए भी और पराजित के लिए भी। पराजित अपनी सत्ता को गंवाकर पछताता है और विजेता कुछ नहीं पाकर पछताता है। प्रतिशोध की चिता जलाने वाला उसमें स्वयं न जले, यह कभी नहीं होता।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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