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जैन दर्शन और संस्कृति गृहस्वामी होने लगे। इससे पूर्व प्राकृतिक वनस्पति पर्याप्त थी। अब बोये बीज से अनाज होने लगा।
वे पकाना नहीं जानते थे और न उनके पास पकाने का कोई साधन था। वे कच्चा अनाज खाते थे। समय बदला। कच्चा अनाज दुष्पाच्य हो गया। लोग ऋषभ के पास पहुंचे और अपनी समस्या का समाधान माँगा। ऋषभ ने अनाज को हाथों से घिसकर खाने की सलाह दी। लोगों ने वैसा ही किया। कुछ समय बाद वह विधि भी असफल होने लगी।
___समय के चरण आगे बढ़े। काल स्निग्ध-रूक्ष बना, तब वृक्षों के पारस्परिक घर्षण से अग्नि उत्पन्न हुई। वह फैली। वन जलने लगे। लोगों ने उस अग्नि _ को देखा, अग्नि का उपयोग और पाक-विद्या सीखी। खाद्य-समस्या का समाधान हो गया। शिल्प और व्यवसाय
अग्नि की उत्पत्ति ने विकास का स्रोत खोल दिया। पात्र, औजार, वस्त्र, चित्र आदि शिल्पों का जन्म हुआ। अन्नपाक के लिए पात्र-निर्माण आवश्यक थे, इसलिए लौहकार-शिल्प का आरम्भ हुआ। सामाजिक जीवन ने वस्त्र-शिल्प और गृह-शिल्प को जन्म दिया। नख, केश आदि काटने के लिए नापित-शिल्प (क्षौर-कर्म) का प्रवर्तन हुआ। इन पाँचों शिल्पों का प्रवर्तन आग की उत्पत्ति के बाद हुआ। ' पदार्थों के विकास के साथ-साथ उनके विनिमय की आवश्यकता अनुभूत हुई। कृषिकार, व्यापारी और रक्षक-वर्ग भी अग्नि की उत्पत्ति के बाद बने। कहा जा सकता . है—अग्नि ने कृषि के उपकरण, आयात-निर्यात के साधन और अस्त्र-शस्त्रों को जन्म दे मानव के भाग्य को बदल दिया।
पदार्थ बढ़े तब परिग्रह में ममता बढ़ी, संग्रह होने लगा। कौम्बिका ममत्व भी बढ़ा। लोकैषणा और धनैषणा के भाव जाग उठे। सामाजिक और सांस्कृतिक परम्पराओं का सूत्रपात
__ पहले मृतकों की दाह-क्रिया नहीं की जाती थी, अब लोक मृतकों को जलाने लगे। पहले पारिवारिक ममत्व नहीं था, अब वह विकसित हो गया। इसलिए मृत्यु के बाद लोग रोने लगे। उसकी स्मृति में वेदी और स्तूप बनाने की प्रथा चल पड़ी। इस प्रकार समाज में कुछ परम्पराओं ने जन्म ले लिया।