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भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक
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समय के मनुष्य बहुत सरल, मर्यादा - प्रिय और स्वयं शासित थे । खेद-प्रदर्शन, निषेध और तिरस्कार - ये मृत्यु- दंण्ड में अधिक होते ।
युगलों को जो कल्प-वृक्षों से प्रकृतिसिद्ध भोजन मिलता था, वह अपर्याप्त हो गया। जो युगल शांत और प्रसन्न थे, उनमें क्रोध का उदय होने लगा । वे आपस में लड़ने-झगड़ने लगे । धिक्कार नीति का उल्लंघन होने लगा। जिन युगलों ने क्रोध, लड़ाई जैसी स्थितियाँ कभी न देखीं और न कभी सुनीं - वे इन स्थितियों से घबरा गये । इस स्थिति पर नियन्त्रण पाने के लिए राजा / की आवश्यकता हुई।
कुलकर नाभि की उपस्थिति में विचार हुआ और नाभि ने ऋषभ को राजा घोषित किया। इस प्रकार नाभि-पुत्र ऋषभ पहले राजा बने । उनका राज्याभिषेक हुआ। उन्होंने राज्य-संचालन के लिए नगर बसाया ।
लोग अरण्य-वास से हट नगरवासी बन गये । असाधु लोगों पर शासन और साधु लोगों की सुरक्षा के लिए उन्होंने व्यवस्था की । चोरी, लूट-खसोट न हो, नागरिक जीवन व्यवस्थित रहे - इसके लिए आरक्षक दल स्थापित किया गया । राज्य की शक्ति को कोई चुनौती न दे सके, इसलिए सेना और सेनापतियों की व्यवस्था हुई । जैसे औषध को व्याधि का प्रतिकार माना जाता, वैसे ही दण्ड अपराध का प्रतिकार माना जाने लेगा। राजा ऋषभ की दण्ड- व्यवस्था प्रकार का दण्ड - विधान था -
चार
१. परिभाषक – थोड़े समय के लिए नजरबन्द करना - क्रोध-पूर्ण शब्दों में अपराधी को 'यहीं बैठ जाओ' का आदेश देना ।
२. मंडलिबन्ध - नजरबन्द करना — नियमित क्षेत्र से बाहर न जाने का आदेश देना ।
३. बन्ध—बंधन का प्रयोग ।
४. घात — डंडे का प्रयोग ।
राजतन्त्र में चार प्रकार के अधिकारी थे । आरक्षक वर्ग के सदस्य 'उग्र', मंत्रि परिषद् के सदस्य 'भोज', परामर्शदात्री समिति के सदस्य या प्रान्तीय प्रतिनिधि 'राजन्य' और शेष कर्मचारी 'क्षत्रिय' कहलाए ।
ऋषभ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को अपना उत्तराधिकारी चुना । यह क्रम राजतन्त्र का अंग बन गया । यह युगों तक विकसित होता रहा ।
खाद्य-समस्या का समाधान
कुलकर युग में लोगों की भोजन सामग्री थी— कन्द, मूल, पत्र, पुष्प और फल । बढ़ती जनसंख्या के लिए कन्द आदि पर्याप्त नहीं रहे और वनवासी लोंग