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जैन दर्शन और संस्कृति चल रहा था। एक ओर आवश्यकता-पूर्ति के साधन कम हए, तो दूसरी ओर जनसंख्या और जीवन की आवश्यकताएं कुछ बढ़ीं। इस स्थिति में आपसी संघर्ष
और लूट-खसोट होने लगी। उसके फलस्वरूप 'कुल' व्यवस्था का विकास हुआ। लोग 'कुल' के रूप में संगठित होकर रहने लगे। कुलों का एक मुखिया होता, वह 'कुलकर' कहलाता। वह सब कुलों की व्यवस्था करता, उनकी सुविधाओं का ध्यान रखता और लूट-खसोट पर नियन्त्रण रखता। यह शासन तंत्र का आदिम रूप था।
मनुष्य प्रकृति में भलाई और बुराई दोनों के बीज होते हैं। परिस्थिति का योग पा वे अंकुरित हो उठते हैं। देश, काल, पुरुषार्थ, कर्म और नियति के योग की सह-स्थिति का नाम है-परिस्थिति। वह व्यक्ति की स्वभावगत वृत्तियों की उत्तेजना का हेतु बनती है। उससे प्रभावित व्यक्ति बुरा या भला बन जाता है।
जीवन की आवश्यकताएं कम थीं। उसके निर्वाह के साधन सुलभ थे। मनुष्य को संग्रह करने और दूसरों द्वारा अधिकृत वस्तु को हड़पने की बात नहीं सूझी। इसके बीज उसमें थे, पर उन्हें अंकुरित होने का अवसर नहीं मिला। ज्यों ही जीवन की आवश्यकताएं बढ़ीं, उसके निर्वाह के साधन दुर्लभ हुए कि संग्रह
और अपहरण की भावना उभर आयी। स्वगत शासन टूटता गया, बाहरी शासन बढ़ता गया।
कुलकर सात हुए हैं। उनके नाम हैं—विमलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, प्रसेनजित्, मरुदेव व नाभि । तीन दंडनीतियाँ
कुलकर-व्यवस्था में तीन दण्ड-नीतियाँ प्रचलित हुई। पहले कुलकर विमलवाहन के समय में 'हाकार' नीति का प्रयोग हुआ। उस समय के मनुष्य स्वयं अनुशासित और लज्जाशील थे। 'हा! तृने यह क्या किया ऐसा कहना गुरुतर दण्ड था।
दूसरे कुलकर चक्षुष्मान् के समय भी यही नीति चली। तीसरे और चौथे—यशस्वी और अभिचन्द्र कुलकर के समय में छोटे अपराध के लिए 'हाकार' और बड़े अपराध के लिए 'माकार' (मत करो) नीति का प्रयोग किया गया।
पाँचवें, छठे और सातवें-प्रसेनजित, मरुदेव और नाभि कुलकर के समय में धिक्कार' नीति चली। छोटे अपराध के लिए 'हाकार', मध्यम अपराध के लिए 'माकार' और बड़े अपराध के लिए 'धिवकार' नीति का प्रयोग किया। उस