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जैन दर्शन और संस्कृति प्रवर्तन नहीं हुआ था। पदार्थ अति स्निग्ध थे। अतः भोजन की मात्रा बहुत स्वल्प थी। खाद्य पदार्थ अप्राकृतिक नहीं थे। विकार बहुत कम थे, इसलिए उनका जीवन-काल बहुत लम्बा होता था। अकाल-मृत्यु नहीं होती थी। यह चार कोटि-कोट सागरोपम (असंख्यात वर्षां) का एकान्त सुखमय पर्व बीत गया।
२. सुषमा
तीन कोटि-कोटि सागरोपम का दूसरा सुखमय पर्व शुरू हुआ। इसमें भोजन की मात्रा कुछ बढ़ी, फिर भी स्वल्प रह गई। जीवनकाल कुछ छोटा हो गया और पदार्थों की स्निग्धता भी घट गई। ३. सुषम-दुःषमा
तीसरे सुख-दुःखमय पर्व में और कमी आ गई। भोजन की मात्रा बढ़ गई तो जीवन की अवधि घट गई। इस युग की काल-मर्यादा थी—दो । कोटि-कोटि सागर। इसके अंतिम चरण में पदार्थों की स्निग्धता में बहुत कमी
यह कर्म-युग की शैशव-काल की कहानी है। समाज-संगठन अभी नहीं हुआ था। यौगलिक व्यवस्था चल रही थी। एक जोड़ा ही सब कुछ होता था। न कुल था, न वर्ग और न जाति । जनसंख्या कम थी। माता-पिता से एक युगल जन्म लेता, वही दम्पत्ति होता। विवाह-संस्था का उदय नहीं हुआ था। जीवन की आवश्यकता बहुतं सीमित भी। भोजन, वस्त्र और निवास के साधन कल्पवृक्ष थे। गाँव बसे नहीं थे। न कोई स्वामी था और न सेवक। शासक शासित भी नहीं थे। पति-पत्नी या जन्य-जनक के सिवा सम्बन्ध जैसी कोई वस्तु नहीं थी।
धर्म और उसके प्रचारक भी नहीं थे। उस समय के लोग सहज धर्म के अधिकारी और शांत स्वभाव वाले थे। चुगली, निन्दा, आरोप जैसे मनोभाव जन्मे ही नहीं थे। हीनता और उत्कर्ष की भावनाएं भी उत्पन्न नहीं हुई थीं। लड़ने-झगड़ने की मानसिक ग्रंथियाँ भी नहीं थीं। वे शस्त्र और शास्त्र दोनों से अनजान थे।
अब्रह्मचर्य सीमित था। मार-काट और हत्या नहीं होती थी। न संग्रह था, न चोरी और न असत्य। वे सदा सहज आनन्द और शांति में लीन रहते थे।