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भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक
कालचक्र
कालचक्र जागतिक ह्रास और विकास के क्रम का प्रतीक है। काल का पहिया नीचे की ओर जाता है तब भौगोलिक परिस्थिति तथा मानवीय सभ्यता
और संस्कृति ह्रासोन्मुखी होती है। काल का पहिया जब ऊपर की ओर आता है तब वे विकासोन्मुखी होती हैं।
काल की इस ह्रासोन्मुखी गति को अवसर्पिर्णी और विकासोन्मुखी गति को उत्सर्पिणी कहा जाता है।
अवसर्पिणी में वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संहनन, संस्थान, आयुष्य, शरीर, सुख आदि पर्यायों की क्रमश: अवनति होती है।
उत्सर्पिणी में उक्त पर्यायों की क्रमश: उन्नति होती है। वह अवनति और उन्नति सामूहिक होती है, वैयक्तिक नहीं होती।
अवसर्पिणी की चरम सीमा ही उत्सर्पिणी का आरम्भ हैं और उत्सर्पिणी का अन्त अवसर्पिणी का जन्म है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के छह-छह विभाग (पूर्व) होते हैं।
अवसर्पिणी के छह विभाग : १. सुषम-सुषमा
२. सुषमा ३. सुषम-दुःषमा
४. दुःषम-सुषमा ५. दुःषमा
६. दुःषम-दुःषमा उत्सर्पिणी के छह विभाग इस व्यतिक्रम से होते हैं : १. दुःषम -दुःषमा २. दु:षमा ३. दुःषम सुषमा
४. सुषम-दुःषमा ५. सुषमा ६. सुषम-सुषमा १. सुषम-सुषमा
हमारे युग का जीवन-क्रम सुषम-सुषमा से शुरू होता है। उस समय भूमि स्निग्ध थी। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श अत्यन्त मनोज्ञ थे। कर्मयुग का