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________________ १५६ जैन दर्शन और संस्कृति ५. स्थूल और सूक्ष्म शरीर अभिन्न ही हैं या भिन्न ही हैं—यह मानना अनाचार है। इन शरीरों की घटक वर्गणाएं भिन्न हैं, इस दृष्टि से भिन्न भी हैं और एक देश-काल में उपलब्ध होते हैं, इसलिए अभिन्न भी हैं—यह मानना आचार है। ६. कोई पुरुष कल्याणवान् ही है या पापी है—यह नहीं कहना चाहिए। एकान्तत: कोई भी व्यक्ति कल्याणवान् या पापी नहीं होता। ७. जगत् दुःख रूप ही है—यह नहीं कहना चाहिए। मध्यस्थदृष्टि वाले इस जगत् में परम सुखी भी होते हैं। भगवान् महावीर ने तत्त्व और आचार दोनों पर अनेकान्त-दृष्टि से विचार किया। इन पर एकान्तदृष्टि से किया जाने वाला विचार मानव-संक्लेश या आग्रह का हेतु बनता है। अहिंसा और संक्लेश का जन्मजात विरोध है। इसलिए अहिंसा को पल्लवित करने के लिए अनेकान्तदृष्टि परम आवश्यक है। आत्मवादी दर्शनों का मुख्य लक्ष्य है-बंध और मोक्ष की मीमांसा करना। बंध, बंध-कारण, मोक्ष और मोक्ष-कारण-यह चतुष्टय अनेकान्त को माने बिना घट नहीं सकता। अभ्यास १. “स्याद्” शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए “शायद्” से उसी भिन्नता बताएं तथा सिद्ध करें कि स्याद्वाद संशयवाद नहीं है। २. क्या जैन दर्शन के स्यावाद को सापेक्षवाद कहा जा सकता है? कैसे? ३. अन्य विद्वानों द्वारा कृत स्यावाद की गई समीक्षा की समीक्षा करें । ४. 'सप्तभंगी' को किसी सरल उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करें। (उदाहरण अपनी ओर से दें)। ५. अनेकान्त दृष्टि का क्या तात्पर्य है ? अहिंसा के विकास में उसका क्या योगदान हो सकता है? 000
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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