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समन्वय का राजमार्ग : नयवाद
सापेक्ष दृष्टि
प्रत्येक वस्तु में अनेक विरोधी धर्म प्रतीत होते हैं। अपेक्षा (relativity) के बिना उनका विवेचन नहीं किया जा सकता। अखण्ड द्रव्य को जानते समय उसकी समग्रता जान ली जाती है, किन्तु इससे व्यवहार नहीं चलता। उपयोग अखण्ड ज्ञान का हो सकता है। अमुक समय में अमुक कार्य के लिए अमुक वस्तु-धर्म का ही व्यवहार या उपयोग होता है, अखण्ड वस्तु का नहीं। हमारी सहज अपेक्षाएं भी ऐसी ही होती हैं।
विटामिन 'डी' की कमी वाला व्यक्ति सूर्य का आतप लेता. है, वह बालसूर्य की किरणों का लेगा। शरीर-विजय (तपस्या) की दृष्टि से सूर्य का ताप सहने वाला तरुण-सूर्य की धूप में आतप लेगा। भिन्न-भिन्न अपेक्षा के पीछे पदार्थ का भिन्न-भिन्न उपयोग होता है। प्रत्येक उपयोग के पीछे हमारी निश्चय अपेक्षा जुड़ी हुई होती है। यदि अपेक्षा न हो तो प्रत्येक वचन और व्यवहार आपस में विरोधी बन जाता है।
एक काठ के टुकड़े का मूल्य एक रुपया होता है, उसका उत्कीर्णन के बाद दस रुपया मूल्य हो जाता है, यह क्यों? काठ नहीं बदला, फिर भी उसकी स्थिति बदल गई। उसवे. गाथ-साथ मूल्य की अपेक्षां बदल गई। काठ. की अपेक्षा से उसका अब भी वह. एक रुपया मूल्य है, किन्तु खुदाई की अपेक्षा से मूल्य, नौ रुपये और बढ़ गया। एक और दस का मूल्य विरोधी है, पर अपेक्षा-भेद समझने पर विरोध नहीं रहता।
अपेक्षा हमारा बुद्धिगत धर्म है। वह भेद से पैदा होता है। भेद मुख्य-वृत्तया चार होते हैं१. वस्तु-भेद।
२. क्षेत्र-भेद या आश्रय-भेद । ३. काल-भेद।
४. अवस्था-भेद। इसलिये समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए अनेकान्तदृष्टि ही शरण है। काठ के टुकड़े के मूल्य पर जो हमने विचार किया, वह अवस्था-भेद से उत्पन्न