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जैन दर्शन का सापेक्षवाद : स्याद्वाद
१५५ कौटुम्बिक, सामाजिक और राजनीतिक अखाड़े संघर्षों के लिए सदा खुले रहते हैं। उनमें अनेकांतदृष्टिलभ्य बौद्धिक अहिंसा का विकास किया जाए तो बहुत सारे संघर्ष टल सकते हैं। एकान्तिक आग्रह से ही द्वैधीभाव बढ़ता है। एक रोगी कहे, मिठाई बहुत हानिकारक वस्तु है। उस स्थिति में स्वस्थ व्यक्ति को एकाएक झेंपना नहीं चाहिए। उसे सोचना चाहिए—'कोई भी निरपेक्ष वस्तु लाभकारक या हानिकारक नहीं होती।' उसके लाभ और हानि की वृत्ति किसी व्यक्ति-विशेष के साथ जुड़ने से बनती है। जहर किसी के लिए जहर है, वही किसी के लिए अमृत होता है, परिस्थिति के परिवर्तन में जहर जिसके लिए जहर होता है, उसी के लिए अमृत भी बन जाता है। किसी में कुछ और किसी में कुछ विशेष तथ्य मिल ही जाते हैं। इस प्रकार हर क्षेत्र में जैन धर्म अहिंसा को साथ लिए चलता है। तत्त्व और आचार पर अनेकान्तदृष्टि
एकांतवाद आग्रह या संक्लिष्ट मनोदशा का परिणाम है, इसलिए वह हिंसा है। अनेकान्त दृष्टि से आग्रह या संक्लेश नहीं होता, इसलिए वह अहिंसा है। साधक को उसी का प्रयोग करना चाहिए।
एकांतदृष्टि से व्यवहार भी नहीं चलता, इसलिए उसका स्वीकार अनाचार है। अनेकांतदृष्टि से व्यवहार का भी लोप नहीं होता, इसलिए उसका स्वीकार आचार है। इनके अनेक स्थानों का वर्णन करते हुए सूत्रकृतांग सूत्र में जो बताया गया है, उसमें से कुछ बिन्दु प्रस्तुत हैं
१. पदार्थ नित्य ही है या अनित्य ही है-यह मानना अनाचार है। पदार्थ कथंचित् (किसी एक अपेक्षा से) नित्य है और कथंचित् अनित्य—यह मानना आचार है।
२. सब जीव विसदृश ही हैं—यह मानना आचार है। चैतन्य, अमूर्तत्व आदि की दृष्टि से प्राणी आपस में समान भी हैं और कर्म, गति, जाति, विकास आदि की दृष्टि से विलक्षण भी हैं—यह मानना आचार है।
३. सब जीव कर्म की गांठ से बन्धे हुए ही रहेंगे अथवा सब छूट । जायेंगे—यह मानना अनाचार है। काल, लब्धि, वीर्य पराक्रम आदि सामग्री पाने वाले मुक्त होंगे भी और नहीं पाने वाले नहीं भी होंगे—यह मानना आचार है।
४. छोटे और बड़े जीवों को मारने में पाप सरीखा होता है अथवा सरीखा नहीं होता—यह मानना अनाचार है। हिंसा में बन्ध की दृष्टि से सादृश्य भी है और बन्ध की मन्दता-तीव्रता की दृष्टि से असादृश्य भी—यह मानना आचार है।