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जैन दर्शन और संस्कृति कोई बात या कोई शब्द सही है या गलत, इसकी परख करने के लिए एक दृष्टि की अनेक धाराएं चाहिए। वक्ता ने जो शब्द कहा, तब वह किस अवस्था में था? उसके आस-पास की परिस्थितियाँ कैसी थीं? उसका शब्द किस शब्द-शक्ति से अन्वित था? विवक्षा में किसका प्राधान्य था? उसका उद्देश्य क्या था? वह किस साध्य को लिये चलता था? उसकी अन्य निरूपण पद्धतियाँ कैसी थीं? तत्कालीन सामयिक स्थितियाँ कैसी थी? आदि-आदि अनेक छोटे-बड़े बाट मिलकर एक-एक शब्द को सत्य की तराजू में तोलते हैं।
सत्य जितना उपादेय है, उतना ही जटिल और छिपा हुआ है। उसे प्रकाश में लाने का एकमात्र साधन है-शब्द। उसके सहारे सत्य का आदान-प्रदान होता है। शब्द अपने-आप में सत्य या असत्य कुछ भी नहीं है। वक्ता की प्रवृत्ति से वह सत्य या असत्य से जुड़ता है। 'रात' एक शब्द है, वह अपने आप में सही या झूठ, कुछ भी नहीं। वक्ता अगर रात को रात कहे तो वह शब्द सत्य और अगर वह दिन को रात कहे तो वही शब्द असत्य हो जाता है। शब्द की ऐसी स्थिति है, तब कैसे कोई व्यक्ति केवल उसी के सहारे सत्य को ग्रहण कर सकता
इसीलिए. भगवान् महावीर ने बताया—“प्रत्येक धर्म (वस्त्वंश) को अपेक्षा से ग्रहण करो। सत्य सापेक्ष होता है। एक सत्यांश के साथ लगे या छिपे अनेक सत्यांशों को ठुकराकर कोई उसे पकड़ना चाहे तो वह सत्यांश भी उसके सामने असत्यांश बनकर आता है।” ___“दूसरों के प्रति ही नहीं किन्तु उनके विचारों के प्रति भी अन्याय मत करो। अपने को समझने के साथ-साथ दूसरों को समझने की भी चेष्टा करो।"_ यही है अनेकान्त दृष्टि, यही है अपेक्षावाद और इसी का नाम है-बौद्धिक अहिंसा।
भगवान् महावीर ने इसे दार्शनिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रखा, इसे जीवन-व्यवहार में भी उतारा। चण्डकौशिक साँप ने भगवान् के डंक मारे, तब उन्होंने सोचा—'यह अज्ञानी है, इसीलिए मुझे काट रहा है, इस दशा में मैं इस पर क्रोध कैसे करूँ?' संगम ने भगवान् को कष्ट दिये तब उन्होंने सोचा—'यह मोह-व्याक्षिप्त है, इसलिए यह ऐसा जघन्य कार्य करता है। मैं मोह-व्याक्षिप्त नहीं हूँ, इसलिए मुझे क्रोध करना उचित नहीं।'
भगवान् ने चण्डकौशिक और अपने भक्तों को समानदृष्टि से देखा, इसलिए देखा कि उनके विश्वमैत्री की दृष्टि से वह उनका शुत्र नहीं माना जा सकता। इस बौद्धिक अहिंसा का विकास होने की आवश्यकता है।