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________________ जैन दर्शन का सापेक्षवाद : स्याद्वाद १५३ पाँचवां उत्तर-'योग्य है, फिर भी बड़ा विचित्र है, उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।' छठा उत्तर-'योग्य नहीं, फिर भी बड़ा विचित्र है, उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।' सातवाँ उत्तर–'योग्य भी है, नहीं भी। अरे क्या पूछते हो, बड़ा विचित्र लड़का है, उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।' उत्तर देनेवाले की भिन्न-भिन्न मनःस्थितियाँ होती हैं। कभी उसके सामने योग्यता की दृष्टि प्रधान हो जाती है और कभी अयोग्यता की। कभी एक साथ दोनों और कभी क्रमशः। कभी योग्यता का बखान होते-होते योग्यता-अयोग्यता दोनों प्रधान बनती हैं, तब आदमी उलझ जाता है। कभी अयोग्यता का बखान होते-होते दोनों प्रधान बनती हैं और उलझन आती है। कभी योग्यता और अयोग्यता दोनों का क्रमिक बखान चलते-चलते दोनों पर एक साथ दृष्टि दौड़ते ही 'कुछ कहा नहीं जा सकता'-ऐसी वाणी निकल पड़ती है। अहिंसा-विकास में अनेकान्तदृष्टि का योग अहिंसा का विचार अनेक भमिकाओं पर विकसित हआ है। कायिक, वाचिक और मानसिक अहिंसा के बारे में अनेक धर्मों में विभिन्न धाराएं मिलती हैं। स्थूल रूप से सूक्ष्मता के बीज भी न मिलते हों, वैसी बात नहीं, किन्तु बौद्धिक अहिंसा के क्षेत्र में भगवान् महावीर ने जो अनेकान्त-दृष्टि दी, उससे जैन धर्म के साथ अहिंसा का अविच्छिन्न सम्बन्ध हो चला। भगवान् महावीर ने देखा कि हिंसा की जड़ विचारों की यथार्थता है। वैचारिक असमन्वय से मानसिक उत्तेजना बढ़ती है और वह फिर वाचिक एवं कायिक हिंसा के रूप में अभिव्यक्त होती है। अखण्ड वस्तु जानी जा सकती है, किन्तु एक शब्द के द्वारा एक समय में कही नहीं जा सकती। मनुष्य जो कुछ कहता है, उसमें वस्तु के किसी एक पहलू का निरूपण होता है। वस्तु के जितने पहलू हैं, उतने ही सत्य हैं, जितने सत्य हैं, उतने ही द्रष्टा के विचार हैं। जितने विचार हैं उतनी ही अपेक्षाएं हैं। जितनी अपेक्षाएं हैं, उतने ही कहने के तरीके हैं। जितने तरीके हैं, उतने ही मतवाद हैं। मतवाद एक केन्द्र-बिन्दु है। उसके चारों ओर विवाद-संवाद, संघर्ष-समन्वय, हिंसा-अहिंसा की परिक्रमा लगती है। एक से अनेक के सम्बन्ध जुड़े हैं, सत्य या असत्य के प्रश्न खड़े होने लगते हैं। बस, यहीं से विचारों का स्रोत दो धाराओं में बह चलता है-अनेकांत या अहिंसा, एकांत या हिंसा।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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