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________________ १४७ गन्ध स्पर्श मृत सर्प | गाय की की गन्ध | जीभ से से अनन्त अनन्त गुण गुण कर्कश मैं हूँ अपने भाग्य का निर्माता लेश्या वर्ण रस कृष्ण काजल के समान काला नीम से अनन्त गुण कटु नील नीलम के समान नील । सोंठ से अनन्त गुण तीक्ष्ण कपोत कबूतर के गले के कच्चे आम के रस से समान रंग अनन्तगुण तिक्त तेजस् हिंगुल-सिन्दूर के समान पके आम के रस से : रक्त अनन्तगुण मधुर पद्म हल्दी के समान पीला मधु से अनन्तगुण मिष्ठ शुक्ल शंख के समान सफेद मिसरी से अनन्त अनिष्ट गन्ध सुरभि- | | मक्खन कुसुम की से गन्ध से | अनन्तगुण अनन्तगुण | सुकुमार इष्ट गन्ध __ गुण मिष्ट कृष्ण, नील और कापोत—ये तीन अप्रशस्त तथा तेज, पद्म और शुक्ल-ये तीन प्रशस्त लेश्याएं हैं। पहली तीन लेश्याएं बुरे अध्यवसाय वाली हैं, इसलिए वे दुर्गति की हेतु हैं। उत्तरवर्ती तीन लेश्याएं भले अध्यवसाय वाली हैं, इसलिए वे सुगति की हेतु हैं। कृष्ण, नील और कापोत—ये तीन अधर्म लेश्याएं तथा तेज, पद्म और शुक्ल-ये तीन धर्म लेश्याएं हैं। निष्कर्ष यह है कि आत्मा के भले और बुरे अध्यवसाय होने का मूल कारण मोह का अभाव या भाव है। कृष्ण आदि पुद्गल-द्रव्य भले-बुरे अध्यवसायों के सहकारी कारण बनते हैं। मात्र काले, नीले आदि पुद्गलों से ही आत्मा के परिणाम बुरे-भले नहीं बनते । केवल पौद्गलिक विचारों के अनुरूप ही चैतसिक विचार नहीं बनते। मोह का भाव-अभाव तथा पौद्गलिक विचार-इन दोनों के कारण आत्मा के बुरे या भले परिणाम बनते हैं। जैनेतर ग्रन्थों में भी कर्म की विशुद्धि या वर्ण के आधार पर जीवों की कई अवस्थाएं बतलाई गई हैं। पातंजलयोग में वर्णित कर्म की कृष्ण, शुक्ल-कृष्ण, शुक्ल और अशुक्ल-अकृष्ण-ये चार जातियाँ भाव-लेश्या की श्रेणी में आती हैं। सांख्यदर्शन तथा श्वेताश्वतरोपनिषद् में रज, सत्त्व और तमोगुण को लोहित, शुक्ल और कृष्ण कहा गया है। यह द्रव्यलेश्या का रूप है। रजोगुण मन को मोहरंजित करता है, इसलिए वह लोहित है। सत्त्व गुण से मन मल-रहित होता है, इसलिए वह शुक्ल है। तमोगुण ज्ञान को आवृत करता है, इसलिए वह कृष्ण है।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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