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जैन दर्शन और संस्कृति लेश्या
लेश्या का अर्थ है-पुद्गल-द्रव्य के संसर्ग से उत्पन्न होने वाला जीव का अध्यवसाय-परिणाम, विचार। आत्मा चेतन है, अचेतन स्वरूप से सर्वथा पृथक् है, फिर भी संसार-दशा में इसका अचेतन (पुद्गल) के साथ गहरा संसर्ग रहता है, इसीलिए अचेतन द्रव्य से उत्पन्न परिणामों का जीव पर असर हुए बिना नहीं रहता। जिन पुद्गलों से जीव के विचार प्रभावित होते हैं, वे भी लेश्या कहलाते हैं। लेश्याएं पौद्गलिक हैं, इसलिए इनमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श होते हैं। लेश्याओं का नामकरण पौद्गलिक लेश्याओं के रंग के आधार पर हुआ है, जैसे—कृष्णलेश्या, नीललेश्या आदि-आदि।
लेश्याएं छ: हैं-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। पहली तीन लेश्याएं अप्रशस्त लेश्याएं हैं। इनके वर्ण आदि चारों गुण अशुभ होते हैं। उत्तरवर्ती तीन लेश्याओं के वर्ण आदि शुभ होते हैं, इसलिए वे प्रशस्त होती हैं।
खान-पान, स्थान और बाहरी वातावरण एवं वायुमण्डल का शरीर और मन पर असर होता है, यह प्राय: सर्वसम्मत-सी बात है। 'जैसा अन्न वैसा मन' यह उवित निराधार नहीं है। शरीर और मन, दोनों परस्परापेक्ष हैं। इनमें एक-दूसरे की क्रिया का एक-दूसरे पर असर हुए बिना नहीं रहता। 'जिस लेश्या के द्रव्य ग्रहण किये जाते हैं, उसी लेश्या का परिणाम हो जाता है'-इस सिद्धान्त से उक्त विषय की पुष्टि होती है। व्यावहारिक जगत् में भी यही बात पाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा-प्रणाली में मानस-रोगी को सुधारने के लिए विभिन्न रंगों की किरणों का या विभिन्न रंगों की बोतलों के जलों का प्रयोग किया जाता है। योग-प्रणाली में पृथ्वी, जल आदि तत्त्वों के रंगों के परिवर्तन के अनुसार मानस-परिवर्तन का क्रम बतलाया गया है।
पौद्गलिक विचार (द्रव्यलेश्या) के साथ चैतसिक विचार (भाव लेश्या) का गहरा सम्बन्ध है। चैतसिक विचार के अनुरूप पौद्गलिक विचार होते हैं अथवा पौद्गलिक विचार के अनुरूप चैतसिक विचार होते हैं, यह एक जटिल प्रश्न है। इसके समाधान के लिए हमें लेश्या की उत्पत्ति पर ध्यान देना होगा। चैतसिक विचार की उत्पत्ति दो प्रकार से होती है-मोह के उदय से या उसके विलय से।
औदयिक चैतसिक विचार अप्रशस्त होते हैं और विलय-जनित चैतसिक विचार प्रशस्त होते हैं।
__पौद्गलिक विकारों (द्रव्य लेश्याओं) के वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श का विवरण अग्र प्रकार हैं