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________________ मैं हूँ अपने भाग्य का निर्माता १४५ चौदहवीं भूमिका में मन, वाणी और शरीर की सारी प्रवृत्तियाँ रुक जाती हैं। वहाँ केवल पूर्व-संचित कर्म का निर्जरण होता है, नये कर्म का बन्ध नहीं होता। अबन्ध-दशा में आत्मा शेष कर्मों को खपा मुक्त हो जाती है। मुक्त होने वाले साधक एक ही श्रेणी के नहीं होते। स्थूल-दृष्टि से उनकी चार श्रेणियाँ प्रतिपादित हैं.. १. प्रथम श्रेणी के साधकों के कर्म का भार अल्पतर होता है। उनका साधना-काल दा हो सकता है। पर उनके लिए कठोर तप करना आवश्यक नहीं होता है और न उन्हें कष्ट सहना होता है। वे सहज जीवन बिता मुक्त हो जाते हैं। इस श्रेणी के साधकों में भरत चक्रवर्ती का नाम उल्लेखनीय है। २. दूसरी श्रेणी के साधकों के कर्म का भार अल्पतर होता है। उनका साधना-काल भी अल्पतर होता है। वे अत्यल्प तप और अत्यल्प कष्ट का अनुभव कर सहज भाव से मुक्त हो जाते हैं। इस श्रेणी के साधकों में भगवान् ऋषभ की माता मरुदेवा का नाम उल्लेखनीय है। ३. तीसरी श्रेणी के साधकों के कर्म-भार अधिक होता है। उनका साधना-काल अल्प होता है। वे घोर तप और घोर कष्ट का अनुभव कर मुक्त । होते हैं। इस श्रेणी के साधकों में मुनि गजसुकुमार का नाम उल्लेखनी है। ४. चौथी श्रेणी के साधकों के कर्म-भार अत्यधिक होता है। उनका साधना-काल दीर्घतर होता है। वे घोर तप और कष्ट सहन कर मुक्त होते हैं। इस श्रेणी के साधकों में सनत्कुमार चक्रवर्ती का नाम उल्लेखनीय है। अनादि का अन्त कैसे? जो अनादि होता है, उसका अन्त नहीं होता, ऐसी दशा में अनादिकालीन कर्म-सम्बन्ध का अन्त कैसे हो सकता है? यह ठीक है, किन्तु इसमें बहुत कुछ समझने जैसा है। अनादि का अन्त नहीं होता, यह सामदायक नियम है और जाति से सम्बन्ध रखता है। व्यक्ति विशेष पर यह लागू नहीं भी होता। प्रागभाव, , अनादि है, फिर भी उसका अन्त होता है। स्वर्ण और मृत्तिका का, घी और दूध का सम्बन्ध अनादि है, फिर भी वे पृथक् होते हैं। ऐसे ही आत्मा और कर्म के अनादि-सम्बन्ध का अन्त होता हैं। यह ध्यान रहे कि इसका सम्बन्ध प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है, व्यक्तिश: नहीं। आत्मा से जितने कर्म पुद्गल चिपटते हैं, वे सब अवधि-सहित होते हैं। कोई भी एक कर्म अनादिकाल से आत्मा के साथ घुल-मिलकर नहीं रहता। आत्मा मोक्षोचित्त सामग्री पा अनास्रव बन जाती है, तब नये कर्मों का प्रवाह रुक जाता है, संचित कर्म तपस्या द्वारा टूट जाते हैं, आत्मा मुक्त बन जाती है।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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