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जैन दर्शन और संस्कृति कर्म-प्रायोग्य परमाणु आत्मा से चिपट कर्म बन जाते हैं। उस पर अपना प्रभाव डालने के बाद वे अकर्म बन जाते हैं। अकर्म बनते ही वे आत्मा से विलग हो जाते हैं। इस विलगाव की दशा का नाम है-निर्जरा।
निर्जरा कर्मों की होती है-यह औपचारिक सत्य है। वस्तु-सत्य यह है कि कर्मों की वेदना-अनुभूति होती है, निर्जरा नहीं होती। निर्जरा अकर्म की होती है। वेदना के बाद कर्म-परमाणुओं का कर्मत्व नष्ट हो जाता है, फिर निर्जरा होती है।
कोई फल डाली पर पककर टूटता है और किसी फल को प्रयत्न से पकाया जाता है। पकते दोनों हैं, किन्तु पकने की प्रकिया दोनों की भिन्न है। जो सहज गति से पकता है, उसका पाककाल लम्बा होता है और जो प्रयत्न से पकता है, उसका पाक-काल छोटा हो जाता है। कर्म का परिपाक भी ठीक इसी प्रकार होता है। निश्चित काल-मर्यादा से कर्म-परिपाक होता है, उसकी निर्जरा को विपाकी-निर्जरा कहा जाता है। यह अहेतुक निर्जरा है। इसके लिए कोई नया प्रयत्न नहीं करना पड़ता, इसलिए इसका हेतु न धर्म होता है और न अधर्म ।
निश्चित काल-मर्यादा से पहले शुभ-योग के व्यापार से कर्म का परिपाक होकर जो निर्जरा होती है, उसे विपाकी निर्जरा कहा जाता है। यह सहेतुक निर्जरा है। इसका हेतु शुभ प्रयत्न है। वह धर्म है। मोक्ष इसी का उत्कृष्ट रूप है। कर्म की पूर्ण निर्जरा (विलय) जो है, वही मोक्ष है। कर्म का अपूर्ण विलय निर्जरा है। . दोनों में मात्रा भेद है, स्वरूप-भेद नहीं। निर्जरा का अर्थ है-आत्मा का विकास या स्वभावोदय । अभेदोपचार की दृष्टि से स्वभावोदय के साधनों को भी निर्जरा कहा जाता है। कर्म-मुक्ति की प्रक्रिया
कर्म परमाणुओं के विकर्षण के साथ-साथ दूसरे कर्म-परमाणुओं का आकर्षण होता रहता है। किन्तु इससे मुक्ति होने में कोई वाधा नहीं आती।
कर्म-सम्बन्ध के प्रधान साधन दो हैं-कषाय और योग। कषाय प्रबल होता है, तब कर्म-परमाणु आत्मा के साथ अधिक काल तक चिपके रहते हैं और तीव्र फल देते हैं। कषाय के मंद होते ही उनकी स्थिति कम और फलशक्ति मंद हो जाती है।
जैसे-जैसे कषाय मन्द होता है, वैसे-वैसे निर्जरा अधिक होती है और पण्य का बन्ध शिथिल हो जाता है। वीतराग (आत्म-विकास की ११वीं. १२वीं, १३वीं भूमिका में) के केवल दो समय की स्थिति का बंध होता है। पहले समय में
कर्म-परमाणु उसके साथ सम्बन्ध करते हैं, दूसरे समय में भोग लिए जाने हैं और __ . तीसरे समय में वे उससे बिछुड़ जाते हैं।