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________________ मैं हूँ अपने भाग्य का निर्माता १४३ ही प्रायश्चित आदि के द्वारा नष्ट हो जाते हैं। इसी कर्म को जैन-दृष्टि में उदीरणा कहा है। उदीरणा १. उदीर्ण कर्म-पुद्गलों की फिर से उदीरणा करे तो इस उदीरणा की कहीं भी परिसमाप्ति नहीं होती। इसलिए उदीर्ण की उदीरणा का निषेध किया गया है। २. जिन कर्म-पुद्गलों की उदीरणा सुदूर भविष्य में होने वाली है, अथवा जिनकी उदीरणा नहीं भी होने वाली है, उन अनुदीर्ण-कर्म-पुद्गलों की भी उदीरणा नहीं हो सकती। ३. जो कर्म-पुद्गल उदय में आ चुके हैं, वे सामर्थ्य-हीन बन गए, इस लिए उनकी भी उदीरणा नहीं होती। ४. जो कर्म-पुद्गल वर्तमान में उदीरणा-योग्य (अनुदीर्ण, किन्तु उदीरणा . योग्य) हैं, उन्हीं की उदीरणा होती है। उदीरणा का हेतु कर्म के स्वाभाविक उदय में नये पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं होती। अबाधाकाल पूरा होता है, कर्म-पुद्गल आपने-आप उदय में आ जाते हैं। उदीरणा द्वारा उन्हें प्रयत्नपूर्वक स्थिति-क्षय से पहले उदय में लाया जाता है। इसलिए इसमें विशेष प्रयत्न या पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। __ यह भाग्य और पुरुषार्थ का समन्वय है। पुरुषार्थ द्वारा कर्म में परिवर्तन किया जा सकता है, यह स्पष्ट है। - कर्म की उदीरणा 'करण' के द्वारा होती है। 'करण' का अर्थ है 'योग' । योग के तीन प्रकार हैं १. शारीरिक प्रवृनि। २. वाचिक प्रवृत्ति। ३. मानसिक प्रवृत्ति । ____ योग शुभ और अशुभ-दोनों प्रकार का होता है। आस्रव-चतुष्टय में अप्रवृत्ति शुभ योग है और आस्रव-चतुष्टय में प्रवृत्ति अशुभ योग है। शुभ योग तपस्या है, सत् प्रवृत्ति है। वह उदीरणा का हेतु है। क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रवृत्ति अशुभ योग हैं, उससे भी उदीरणा होती है। निर्जरा __ संयोग का अन्तिम परिणाम वियोग है। आत्मा और परमाणु-ये दोनों .. भिन्न हैं। वियोग से आत्मा आत्मा है और परमाणु परमाणु । इनका संयोग होता है, तब आत्मा रूपी कहलाती है और परमाणु कर्म ।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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