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जैन दर्शन और संस्कृति . उदय में कोई परिवर्तन नहीं होता। अनुदित कर्म के उदय में परिवर्तन होता है। पुरुषार्थ के सिद्धान्त का यही धुव्र आधार है। यदि यह नहीं होता, तो कोरा नियतिवाद ही होता। आत्मा स्वतन्त्र है या कर्म के अधीन? ।
कर्म की मुख्य दो अवस्थाएं हैं—बन्ध और उदय। दूसरे शब्दों में ग्रहण और फल। “कर्म ग्रहण करने में जीव स्वतन्त्र है और उसका फल भोगने में परतंत्र । जैसे कोई व्यक्ति वृक्ष पर चढ़ता है, वह चढ़ने में स्वतन्त्र है—इच्छानुसार चढ़ता है। प्रमाद-वश गिर जाए तो वह गिरने में स्वतन्त्र नहीं है।” इच्छा से गिरना नहीं चाहता, फिर भी गिर जाता है, इसलिए गिरने में परतंत्र है। एक रोगी व्यक्ति भी गरिष्ठ से गरिष्ठ पदार्थ खा सकता है, किन्तु उसके फलस्वरूप होने वाले अजीर्ण से नहीं बच सकता। कर्म-फल भोगने में जीव स्वतन्त्र नहीं है, यह कथन प्रायिक है। कहीं-कहीं जीव उसमें स्वतंत्र भी होते हैं। जीव और कर्म का संघर्ष चलता रहता है। जीव के काल आदि लब्धियों की अनुकूलता होती है, तब वह कर्मों को पछाड़ देता है और कर्मों की बहलता होती है, तब जीव उनसे दब जाता है। इसलिए यह मानना होता है कि कहीं जीव कर्म के अधीन है और कहीं कर्म जीव के अधीन।
कर्म दो प्रकार के होते हैं१. निकाचित—जिनका विपाक अन्यथा नहीं हो सकता है। २. दलिक—जिनका विपाक अन्यथा भी हो सकता है।
दूसरे शब्दों में, १. निरुपक्रम—इसका कोई प्रतिकार नहीं होता, इसका उदय अन्यथा नहीं हो सकता। २. सोपक्रम-यह उपचार-साध्य होता है।
निकाचित कर्मोदय की अपेक्षा से जीव कर्म के अधीन ही होता है। दलिक की अपेक्षा से दोनों बाते हैं-जहाँ जीव उसको अन्यथा करने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करता, वहाँ वह उस कर्म के अधीन होता है और जहाँ जीव प्रबल धृति, मनोबल, शरीर-बल आदि सामग्री की सहायता से सत्प्रयत्न करता है, वहाँ कर्म उसके अधीन होता है। उदय-काल से पूर्व कर्म को उदय में ला, तोड़ डालना, उसकी स्थिति और रसको मंद कर देना, यह सब इस स्थिति में हो सकता है। यदि यह न होता, तो तपस्या करने का कोई अर्थ नहीं रहता। पहले बंधे हुए कर्मों की स्थिति और फल-शक्ति नष्ट कर, उन्हें शीघ्र तोड़ डालने के लिए ही तपस्या की जाती है। पातंजल-योगभाष्य में भी अदृष्ट-जन्म-वेदनीय कर्म की तीन गतियाँ बताई गई हैं। उनमें से एक गति है-कई कर्म बिना फल दिए