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कर्मों का संयोग और वियोग : आध्यात्मिक विकास और ह्रास
जैन दर्शन और संस्कृति
इस विश्व में जो कुछ है, वह होता रहता है । 'होना' वस्तु का स्वभाव है । 'नहीं होना' ऐसा जो है, वह वस्तु ही नहीं है । वस्तुएं तीन प्रकार की हैं१. अचेतन और अमूर्त - धर्म, अधर्म, आकाश, काल । २. अचेतन और मूर्त - पुद्गल ३. चेतन और अमूर्त - जीव ।
पहली प्रकार की वस्तुओं का होना - परिणमन – स्वाभाविक ही होता है और वह सतत प्रवाहमान रहता है ।
पुद्गल में स्वाभाविक परिणमन के अतिरिक्त जीव-कृत प्रायोगिक परिणमन भी होता है, उसे अजीवोदय - निष्पन्न कहा जाता है । शरीर और उसके प्रयोग में परिणत पुद्गल वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श – ये अजीवोदय - निष्पन्न हैं। यह जितना दृश्य संसार है, वह सब या तो जीवत् - शरीर है या जीव-मुक्त शरीर । जीव में स्वाभाविक और पुद्गलकृत प्रायोगिक परिणमन होता है ।
स्वाभाविकँ परिणमन अजीव और जीव दोनों में समरूप होता है। पुद्गल में जीवकृत परिवर्तन होता है, वह केवल उसके संस्थान - आकार का होता है । वह चेतनाशील नहीं, इसलिए इससे उसके विकास- ह्रास, उन्नति - अवनति का क्रम नहीं बनता। पुद्गल जैविक परिवर्तन पर आत्मिक विकास - ह्रास, आरोह-पतन का क्रम अवलम्बित रहता है । इसी प्रकार उससे नानाविध अवस्थाएं और अनुभूतियाँ बनती हैं। यह दार्शनिक चिन्तन का एक मौलिक विषय बन जाता है ।
अभ्यास
१. " कर्म" को विभिन्न दर्शनों ने क्या-क्या नाम दिए ? जैन दर्शन के अनुसार कर्म क्या है ?
२. कर्म को मानने के क्या आधार हैं ?
३. आत्मा और कर्म का सम्बन्ध क्यों और कैसे होता है ?
४. कर्म की अवस्थाएं कितनी हैं ? उनको समझाइए ।
५. कर्म के उदय से क्या-क्या होता है ?
६. क्या पुरुषार्थ के द्वारा भाग्य को बदला जा सकता है ? जैन दर्शन की दृष्टि से उत्तर दें ।
७. कर्म-मुक्ति की प्रक्रिया को सरल शब्दों में स्पष्ट करें।
८. निम्नलिखित शब्दों पर टिप्पणी लिखें— लेश्या, निर्जरा, बंध, उदीरणा,
पुण्य-पाप।
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