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मैं हूँ अपने भाग्य का निर्माता
१३९ जानता, वही पुण्य को उपादेय और पाप को हेय मानता है। निश्चय-दृष्टि से ये दोनों हेय हैं।
पुण्य की हेयता के बारे में जैन-परम्परा एकमत है। आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य और पाप का आकर्षण करने वाली विचारधारा को पर-समय अर्थात् जैन-सिद्धान्त से परे माना है।
पुण्य काम्य नहीं है। योगीन्दु के शब्दों में—“वे पुण्य किस काम के जो राज्य देकर जीव को दु.ख परम्परा की ओर ढकेल दें। आत्म-दर्शन की खोज में लगा हुआ व्यक्ति मर जाए, यह अच्छा है, किन्तु आत्म-दर्शन से विमुख होकर पुण्य चाहे, वह अच्छा नहीं है।”
आचार्य भिक्षु ने कहा है-“पुण्य की इच्छा करने से पाप का बन्ध होता है।” आगम कहते हैं—“इहलोक, परलोक, पूजा-श्लाघा आदि के लिए धर्म मत करों, केवल आत्म-शुद्धि के लिए धर्म करो।"
यही बात वेदांत के आचार्यों ने कही है, “मोक्षार्थी को काम्य और निषिद्ध -कर्म में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए।" क्योंकि आत्म-साधक का लक्ष्य मोक्ष होता है और पुण्य संसार-भ्रमण के हेतु हैं।
भगवान् महावीर ने कहा है-“पुण्य और पाप-इन दोनों के क्षय से मुक्ति मिलती है। जीव शुभ और अशुभ कर्मों के द्वारा संसार में परिभ्रमण करता
___गीता भी यही कहती है-“बुद्धिमान् सुकृत और दुष्कृत दोनों को छोड़ देता है।" ___ अभयदेवसूरि ने आस्रव, बन्ध, पुण्य और पाप को संसार-भ्रमण का हेतु कहा है। - आचार्य भिक्षु ने इस प्रकार समझाया है—“पुण्य से भोग मिलते हैं। जो पुण्य की इच्छा करता है, वह भोगों की इच्छा करता है। भोग की इच्छा से. संसार वढ़ता है।"
इसका निगमन यह है कि अयोगी-अवस्था (पूर्ण-समाधि-दशा) से पूर्व सत्प्रवृत्ति के साथ पुण्य-बन्ध अनिवार्य रूप से होता है। फिर भी पुण्य की इच्छा से कोई भी सत्प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। प्रत्येक सत्प्रवृत्ति का लक्ष्य होना चाहिए-मोक्ष-आत्म-विकास । भारतीय दर्शनों का यही चरम लक्ष्य है। 'लौकिक अभ्युदय' धर्म का आनुषंगिक फल है-धर्म के साथ अपने आप फलने वाला है। यह शाश्वतिक या चरम लक्ष्य नहीं है।