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जैन दर्शन और संस्कृति
स्थिति-हेतुक उदय — मोह कर्म की सर्वोत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्वमोह का तीव्र उदय होता है । यह स्थिति हेतुक विपाक उदय है ।
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भव - हेतुक उदय — दर्शनावरण ( जिसके उदय से नींद आती है) सबके होता है फिर भी नींद मनुष्य और तिर्यंच दोनों को आती है, देव और नारक को नहीं आती। यह भव (जन्म) हेतु विपाक उदय है ।
गति - स्थिति और भव के निमित्त से कई कर्मों का अपने-आप विपाक उदय हो जाता है ।
दूसरों द्वारा उदय में आने वाले कर्म - हेतु
पुद्गल - हेतुक उदय - किसी ने पत्थर फेंका, चोट लगी, असात का उदय हो आया - यह दूसरों के द्वारा किया हुआ असात वेदनीय का पुद्गल हेतुक विपाक - उदय है ।
किसी ने गाली दी, क्रोध आ गया - यह क्रोध - वेदनीय - पुद्गलों का सहेतुक विपाक - उदय है ।
पुद्गल - परिणाम (Physical/ Chemical change) के द्वारा होने वाला उदय-भोजन किया, वह पचा नहीं, अजीर्ण हो गया । उससे रोग पैदा हुआ । यह असात वेदनीय का विपाक उदय है । मदिरा पी, उन्माद छा गया - ज्ञानावरण का विपाक - उदय हुआ । यह पुद्गल - परिणमन - हेतुक विपाक उदय है ।
इस प्रकार के अनेक हेतुओं से कर्मों का विपाक उदय होता है । अगर ये हेतु नहीं मिलते, तो उन कर्मों का विपाक रूप में उदय नहीं होता । उदय का एक दूसरा प्रकार और है । वह है प्रदेश - उदय । उसमें कर्म - फल का स्पष्ट अनुभव नहीं होता । यह कर्म-वेदन की अस्पष्टानुभूति वाली दशा है। पर जो कर्म-बन्ध होता है, वह अवश्य भोगा जाता है, चाहे प्रदेश - उदय ही हो
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पुण्य-पाप
मानसिक, वाचिक और शारीरिक क्रिया शुभ होती है तो शुभ-कर्म परमाणु और वह अशुभ होती है तो अशुभ कर्म परमाणु आत्मा के साथ चिपकते हैं । शुभ कर्म परमाणु पुण्य और अशुभ कर्म परमाणु पाप कहलाते हैं । पुण्य और पाप - दोनों विजातीय तत्त्व हैं । इसलिए ये दोनों आत्मा की परतन्त्रता के हेतु हैं । आचार्यों ने पुण्य कर्म की सोने और पाप कर्म की लोहे की बेड़ी से तुलना की है । स्वतन्त्रता के इच्छुक मुमुक्षु के लिए ये दोनों हेय हैं। मोक्ष का हेतु रत्नत्रयी (सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक्चरित्र) है । जो व्यक्ति इस तत्त्व को नहीं