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________________ मैं हूँ अपने भाग्य का निर्माता १३७ विचित्र शक्ति और उसके नियमन के विविध प्रयोगों के अध्ययन के बाद कर्मों की फलदान-शक्ति के बारे में कोई सन्देह नहीं रहता। उदय __ कर्म का बन्ध होते ही उसमें विपाक प्रदर्शन की शक्ति नहीं हो जाती। वह निश्चित अवधि के पश्चात् ही पैदा होती है। बन्धे हुए कर्म-पुद्गल अपना कार्य करने में समर्थ हो जाते हैं, तब उनके निषेक (कर्म-पुद्गलों की एक काल में उदय होने योग्य रचना-विशेष) प्रकट होने लगते हैं, वह उदय है। कर्म का उदय दो प्रकार का होता है१. प्राप्त-काल कर्म का उदय-बंधी हुई स्थिति के अनुसार उचित समय पर स्वत: कर्म उदय में आते हैं। २. अप्राप्त-काल कर्म का उदय-काल प्राप्त होने से पूर्व ही परिस्थिति या प्रयत्न-विशेष के द्वारा कर्म का उदय में आना। कर्म की वह अवस्था 'अबाधा' कहलाती है, जिसमें कर्म बन्धन के बाद उदयावस्था को प्राप्त नहीं करते। उस समय कर्म की सत्ता होती है, किन्तु उसका कर्तव्य प्रकट नहीं होता। इसलिए वह कर्म का अवस्थान काल (अबाधाकाल) है। 'अबाधा' का अर्थ है—अन्तर। बंध और उदय के अन्तर का जो काल है, वह 'अबाधाकाल' है। काल-मर्यादा पूर्ण होने पर कर्म का वेदन या भोग प्रारम्भ होता है। वह ‘प्राप्त-काल उदय' है। यदि स्वाभाविक पद्धति से ही कर्म उदय में आयें, तो आकस्मिक घटनाओं की सम्भावना तथा तपस्या की प्रयोजकता ही नष्ट हो जाती है। किन्तु अपवर्तना (कर्म की स्थिति को कम करने) के द्वारा कर्म की उदीरणा या 'अप्राप्त-काल उदय' होता है। '. सहेतुक और निर्हेतुक उदय कर्म का परिपाक और उदय अपने-आप भी होता है और दूसरों के द्वारा भी, सहेतुक भी होता है और निर्हेतुक भी। कोई बाहरी कारण नहीं मिला, क्रोध-वेदनीय पुद्गलों के तीव्र विपाक से अपने-आप क्रोध आ गया—यह उनका निर्हेतुक उदय है। इसी प्रकार हास्य, भय, वेद (काम-विकार) और कषाय के पुद्गलों का भी दोनों प्रकार का उदय होता है । अपने आप उदय में आने वाले कर्म के हेतु गति-हेतुक उदय-नरक गति में असात (असुख) का उदय तीव्र होता है। यह गति-हेतुक विपाक-उदय है।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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